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लाला जी तोर बतिया कहि देब

कोई लालाजी बेर के पेड़ के नीचे बैठ कर शौच कर रहे थे. तभी पेड़ से एक पका हुआ बेर टूट कर उनके सामने गिरा. लाला जी से नहीं रहा गया. उनहोंने वह बेर उठा कर खा लिया. उसी दिन उस गाँव में एक बरात आई थी. बरात की महफिल में एक वैश्या गाने लगी लाला जी तोर बतिया कहि देब. वहाँ बैठे लालाजी ने समझा कि वैश्या ने पाखाना करते समय उन को बेर खाते देख लिया है. अतः लालाजी वैश्या के सम्मुख रुपये फेंकने लगे, ताकि वह चुप हो जाय. वैश्या ने समझा कि लालाजी को उसका गाना खूब पसंद आ रहा है अतः वह बार-बार वही पद दुहराती रही और लालाजी रुपयों की वर्षा करते रहे. अन्त में तंग भाकर लालाजी ने कहा- ‘क्या कहेगी, यही न कि मैं सुबह पाखाना करते समय बेर खा रहा था. कह दे, अब मैं और रूपये नहीं दूंगा. तात्पर्य है कि दोषी व्यक्ति को अपने-आप पर सदैव शंका बनी रहती है.

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