एक समय था जब भारत में बोलचाल की भाषा संस्कृत थी. बोलचाल की भाषा कोई भी हो उस में जो व्यवहार की बातें बार बार बोली जाती हैं उन्हें कहावत ही कहते हैं. वह अलग बात है कि अब हम उन वाक्यों को सूक्तियां कहते हैं. इस प्रकार की कुछ कहावतें/सूक्तियां इस पृष्ठ पर एकत्र करने का प्रयास किया गया है.

  1. अंगारः शतधौतेन मलिंत्व न मुन्चति  कोयला सैंकड़ों बार धोने पर भी मलिनता नहीं छोड़ता.
  2. अंगीकृत सुकृतिनः परिपालयन्ति पुण्यात्मा जिस बात को स्वीकार करते है, उसे निभाते हैं.
  3. अंते धर्मो जय, पापो क्षय     अंत में धर्म की जय होती है और पाप का क्षय (नाश) होता है.
  4. अकुलीनोअपि शास्त्रज्ञो दैवतेरपि पूज्यते  नीच कुल वाला भी शास्त्र जानता हो तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता हैं.
  5. अक्षरशून्यो हि अन्धो भवति  निरक्षर (मूर्ख) व्यक्ति अंधा होता है.
  6. अगाधजलसंचारी रोहितः नैव गर्वितः अगाध जल में तैरने वाली रोहू मछली घमंड नहीं करती
  7. अङ्गुलिप्रवेशात्‌ बाहुप्रवेशः अंगुली प्रवेश होने के बाद हाथ प्रवेश किया जता है .
  8. अजा सिंहप्रसादेन वने चरति निर्भयम्‌ शेर की कृपा से बकरी जंगल मे बिना भय के चरती है
  9. अज्ञातकुलशीलस्य वासो न देयः जिस का कुल और शील मालूम नहीं हो उसको अपने घर नहीं टिकाना चाहिए.
  10. अजीर्णो भोजनम् विषंजिस व्यक्ति को अपच हो उसके लिए भोजन विष के समान है.
  11. अति तृष्णा विनाशयते अधिक लालच नाश कराता है .
  12. अति दर्पेण हता: लंका अत्यधिक अहंकार विनाश का कारण बनता है, रावण के अहंकार से लंका का विनाश हुआ.
  13. अति परिचयादवज्ञा सतत गमनमनादरो सन्तिज्यादा निकटता से अवज्ञा और ज्यादा आने जाने से अनादर होता है.
  14. अति भक्ति, चोरेर लक्षणंकोई व्यक्ति बहुत अधिक भक्ति दिखा रहा हो तो उसके मन में चोर हो सकता है.
  15. अति विनयं घूर्त लक्षणम्‌ कोई बहुत अधिक विनय दिखा रहा हो तो धूर्त हो सकता है.
  16. अति सर्वत्र वर्जयेतकिसी भी चीज़ की अति बुरी होती है.
  17. अतिथि देवो भव:  घर आया अतिथि देवता के समान है.
  18. अतिस्नेहः पापशंकी अत्यधिक प्रेम पाप की आशंका उत्पन्न करता है.
  19. अतृणे पतितो वह्निः स्वयमेवो शाम्यति तिनकों से रहित स्थान पर पड़ी हुई अग्नि स्वयं शांत हो जाती है.
  20. अत्यन्तं विनयो ज्ञेयं महावंचक लक्षणं अति भक्ति चोर का लक्षण.
  21. अत्यादर शंकनीय:  अत्यधिक आदर शंका उत्पन्न करता है.
  22. अनतिक्रमणीया नियतिरिति नियति अतिक्रमणीय नहीं होती है अर्थात् होनी नहीं टाला जा सकता.
  23. अनतिक्रमणीयो हि विधि: भाग्य का उल्लड़्घन नहीं किया जा सकता.
  24. अनभ्यासे विषम शास्त्रम्  अभ्यास न करने पर शास्त्रों का ज्ञान नष्ट हो जाता है.
  25. अनभ्यासे विषम विद्या बिना अभ्यास के विद्या नहीं आती.
  26. अनर्थ: संघचारिणा: आपत्तियाँ एक साथ आती हैं.
  27. अनुलड़्घनीय: सदाचार: सदाचार का कभी उल्लड़्घन नहीं करना चाहिए.
  28. अन्तर्शाक्त: वहिर्शैव्य: सभा मध्ये च वैष्णव:हिन्दुओं की तीन शाखाएं हुआ करती थीं, शाक्त जो शक्ति (देवी) के उपासक थे, शैव्य जो शिव के उपासक थे और वैष्णव जो विष्णु के उपासक थे. कहावत में ऐसे लोगों की ओर संकेत किया गया है जो अंदर से कुछ और, बाहर से कुछ और एवं परिस्थितियां बदलने पर कुछ और ही बन जाते हैं.
  29. अन्ते मति सा गति:अंत समय में व्यक्ति जिस प्रकार की भावना रखता है वैसी ही गति उसको मिलती है.
  30. अन्तो नास्ति पिपासायाः तृष्णा का अन्त नहीं है .
  31. अन्धस्य अन्धानुलग्नस्य विनिपात: पदे पदे. अंधे का अनुसरण अंधा करे तो कदम कदम पर कुएं में गिरेगा.
  32. अन्धस्य वर्तकीलाभ: अंधे के हाथ बटेर लगी.
  33. अन्धानां नीयमाना यथान्धा:     जिस प्रकार अंधे को अंधा राह दिखाए (तो दोनों कुँए में गिरते हैं).
  34. अपुत्रस्य गृहम्शून्यम्बिना पुत्र के घर शून्य है.
  35. अपेयेषु तडागेषु बहुतरं उदकं भवति जिस तालाब का पानी पीने योग्य नहीं होता, उसमें बहुत जल भरा होता है
  36. अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः अप्रिय किंतु परिणाम में हितकर हो ऐसी बात कहने और सुनने वाले दुर्लभ होते हैं.
  37. अभ्याससारिणी विद्या विद्या अभ्यास से आती है
  38. अयोग्यः पुरुषः नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः कोई भी पुरुष अयोग्य नहीं, पर उसे योग्य काम में जोडनेवाला पुरुष दुर्लभ है
  39. अर्थोहि लोके पुरुषस्य बन्धुः संसार मे धन ही आदमी का भाई है. 
  40. अर्धो घटो घोषमुपैति नूनम्आधा भरा घड़ा अधिक आवाज करता है (अल्प ज्ञानी मनुष्य अधिक बोलता है).थोथा चना बाजे घना. इस की पूरी उक्ति इस प्रकार है – सम्पूर्ण कुम्भो न करोति शब्दम्  अर्धो घटो घोषमुपैति नूनम्   
  41. अलभ्यम् हीनमुच्यते.जो हम नहीं पा सकते वह बेकार है. (हाथ न पहुँचे थू कौड़ी).
  42. अलसस्य कुतो विद्याआलसी मनुष्य विद्या प्राप्त नहीं कर सकते.
  43. अल्प आयो, व्ययो महान. आमदनी कम खर्च बहुत अधिक. (आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया).
  44. अल्प हेतोर्बहुत्याग: छोटे से लाभ के लिए बड़ा नुकसान उठाना.
  45. अल्पविद्या भयंकरी नीम हकीम खतरे जान.
  46. अल्पविद्या महागर्वीजिस को कम ज्ञान होता है वह अपने को बहुत विद्वान समझता है.
  47. अल्पानामपि वस्तुनाम् संहति कार्यसाधिकाछोटी छोटी वस्तुएं भी मिल कर बड़ा कार्य कर सकती हैं.
  48. अवश्यमेवं भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् अच्छे अथवा बुरे जैसे कर्म किये हैं उनका फल भोगना ही पड़ेगा.
  49. अविद्याजीवनं शून्यम्बिना विद्या के जीवन शून्य हैं.
  50. अविवेक: परमापदां वास: अज्ञानता विपत्ति का घर है.
  51. अशांतस्य कुतः सुखम् अशांत (शांति रहित) व्यक्ति को सुख कैसे मिल सकता है?
  52. असंतुष्टा द्विजा नष्ट: असंतुष्ट ब्राह्मण विनाश को प्राप्त होता है.
  53. असाधुं साधुना जयेत् असाधु को साधुता दिखलाकर अपने वंश में करें, दुष्ट को सज्जनता से जीते.
  54. अहं त्यागी, हरिं लभेत् आपा तजे सो हरि को भजे.
  55. अहिंसा परमोधर्म:अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है. इसके बाद की पंक्ति इससे भी महत्वपूर्ण है – धर्म हिंसा तथैव च (धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करनी पड़े तो वह भी धर्म है).
  56. अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता बलवान के साथ विरोध करने का परिणाम दुःखदायी होता है.
  57. आचार परमो धर्मः बेहतर आचरण ही परम धर्म है.
  58. आज्ञा गुरुणामविचारणीया बड़ों की आज्ञा को भले बुरे का विचार किए बिना ही पालन करना चाहिए.
  59. आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् जो अपने प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के प्रति न करें.
  60. आत्मवत् सर्व भूतानि.सभी प्राणियों को अपने समान समझना चाहिए.
  61. आपत्ति काले, मर्यादा नास्ति आपत्ति के समय सही गलत नहीं देखा जाता.
  62. आपदि मित्र परीक्षा  आपत्ति में ही मित्र की परीक्षा होती है.
  63. आयुषः क्षणमेकमपि, न लभ्यः स्वर्ण कोटिभिः करोडों स्वर्ण मुद्राओं के द्वारा आयु का एक क्षण भी नहीं पाया जा सकता. 
  64. आरोग्यं महा भाग्यं निरोगी काया बड़े भाग्य से मिलती है.
  65. आर्जवं हि कुटिलेषु न नीति: कुटिल मनुष्यों के साथ सरलता का व्यवहार नीति-युक्त नहीं है.
  66. आर्थस्य मूलं राज्यम् धन राज्य की जड़ है.
  67. आलस्यं हि मनुष्याणा शरीरस्थो महान रिपुः शरीर में स्थित आलस्य ही मनुष्यों का सबसे बड़ा शत्रु हैं.
  68. आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत आहार और व्यवहार में लज्जा का त्याग करने वाला सुखी रहता है
  69. इतिहास: पंचमो वेद: इतिहास पांचवां वेद है. इतिहास भी ज्ञान का भंडार है.
  70. इतो व्याघ्र: ततस्तटी संकट सामने है और बचने का उपाय दूर है.
  71. इन्द्रोपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणे छोटे होते हुए भी अपने को बड़ा सिद्ध करना. अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना.
  72. ईश्वर: सत्यवाक प्रिय:सच बोलने वाले ईश्वर को भी प्रिय होते हैं.
  73. ईश्वरेच्छा गरीयसी हरि की इच्छा बलवान है.
  74. उत्सवप्रियाः खलुः मनुष्याः मनुष्य उत्सव प्रिय होते हैं.
  75. उदर निमित्तं बहुकृत वेषापेट के लिए आदमी को बहुत कुछ करना पड़ता है.
  76. उदारस्य तृणम वित्तं उदार व्यक्ति के लिए धन तृण के समान है.
  77. उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथे    प्रयास करने से कार्य सिद्ध होते हैं, केवल मन में सोचने से नहीं.
  78. उद्योग एव पुरुषस्य लक्षणं पुरुषों को कर्म ही शोभा देता है.
  79. उष्ट्रानां विवाहेषु गीत:गायन्ति गर्दभा:, परस्परं प्रशंसन्ति अहो रूप: अहो ध्वनिऊंटों के विवाह में गधे गीत गा रहे हैं. एक दूसरे की प्रशंसा कर रहे हैं, वाह क्या सुन्दरता है, वाह क्या मधुर स्वर है. दो मूर्ख लोग एक दूसरे की बड़ाई करें तो.
  80. ऋणकर्ता पिता शत्रु:उधार लेने वाला पिता शत्रु के समान है (क्योंकि पिता के न रहने पर पुत्र को ऋण चुकाना पड़ेगा).
  81. एक: क्रिया द्विअर्थकारी प्रसिद्ध: एक पंथ दो काज. एक तीर से दो शिकार.
  82. एकां लज्जां परित्यज्य सर्वत्र विजयी भवेत्जिसने लज्जा त्याग दी वह सब पर भारी है. (नंग बड़े परमेश्वर से).
  83. औषधि: जान्हवी तोयं, वैद्यो नारायणो हरि:गंगा का जल औषधि के समान है और वैद्य ईश्वर के समान.
  84. क: पर: प्रियवादिनाम् मीठा बोलने वाले के लिए कोई पराया नहीं है.
  85. कंटकेनैव कंटकंकांटे से ही कांटा निकलता है.
  86. कः कं शक्तो रक्षितुं मृत्युकाले   मृत्यु समीप आ जाने पर कौन किसकी रक्षा कर सकता है.
  87. कर्म: हि धर्म: कर्म ही धर्म है.
  88. कर्मणा ज्ञायते जाति: व्यक्ति के कार्यकलापों से उसकी जाति का पता चल जाता है.
  89. कर्मणो गहना गतिः भाग्य की गति कठिन हैं.
  90. कष्ट: खलु पराश्रय:  पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं.
  91. कष्टाद्पि कष्टतरं परगृहवासः परान्नम् च अर्थः कष्ट से भी बड़ा कष्ट दूसरे के घर में निवास करना एवं दूसरे का अन्न खाना हैं.
  92. काक: काक: पिक: पिक:कौवा कौवा ही रहेगा और कोयल कोयल ही रहेगी. मनुष्य अपनी प्रवृत्ति नहीं बदलता.
  93. काच: काचो मनिर्मणि:    कांच कांच है और मणि मणि है. नकल कर के बनी वस्तु असली का स्थान नहीं ले सकती.
  94. कामातुराणाम् न भयम् न लज्जा वासना में अंधे लोगों को कोई डर या शर्म नहीं होती.
  95. काया: कस्य न वल्लभ: अपनी देह किसे प्यारी नहीं है.
  96. कालस्य कुटिल: गति: काल की गति नहीं जानी जाती.
  97. काले खलु समारब्धाः फलं बध्नन्ति नीतय: समय पर आरंभ की गयी नीतियां सफल होती हैं.
  98. कालो न यातो वयमेव याताः समय नहीं बीतता, हम ही बीत जाते हैं.
  99. काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमतांबुद्धिमान लोगों का समय उत्तम काव्य और शास्त्रों की चर्चा में व्यतीत होता है. मूल श्लोक की अगली पंक्ति है – व्यसने च मूर्खानां, निद्रया कलहेन व (मूर्ख लोगों का समय बुरी आदतों, नींद और झगड़ों में बीतता है).  
  100. किं करिष्यन्ति वक्तार:, श्रोता: यत्र न विद्यते   जहाँ कोई सुनने वाला न हो वहाँ कोई भाषण दे कर क्या करेगा.
  101. किं करिष्यन्ति वक्तारो श्रोता यत्र न बुद्ध्यते जहाँ श्रोता बुद्धिमान नहीं है वहाँ वक्ता (भाषण देकर) भी क्या करेगा ?
  102. किं दूरं व्यवसायिनां   व्यवसाय करने वाले को कोई देश दूर नहीं है.
  103. किम् जीवितेन् पुरुषस्य निरक्षरेण.   निरक्षर मनुष्य के जीवन से क्या लाभ?
  104. किम्दुष्करं महात्मनां        महान लोगों के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है.
  105. कुपुत्रेण कुलं नष्टम्कुपुत्र से कुल नष्ट हो जाता है.
  106. कुपुत्रो जायते क्वचिदपि कुमाता न भवति   कुपुत्र उत्पन्न होने से कोई स्त्री कुमाता नहीं हो जाती. इस का दूसरा अर्थ यह है कि कुपुत्र बहुत हो सकते हैं पर कुमाता कोई नहीं होती.
  107. कुभोज्येन दिनं नष्टम् बुरे भोजन से पूरा दिन नष्ट हो जाता है.
  108. कुरूपता शीलयुता विराजते कुरुप व्यक्ति भी शीलवान हो तो सुंदर लगता है.
  109. कुलं शीलेन रक्ष्यते.   शील ही कुल की रक्षा करता है.
  110. कुवस्त्रता शुभ्रतया विराजते   खराब वस्त्र भी स्वच्छ हो तो अच्छा दिखता है.
  111. कुसंगति कथय किम न करोति पुंसाम् बुरी संगति मनुष्य को बहुत हानि पहुँचा सकती है.
  112. कृशे कस्यास्ति सौह्रदम् गरीब का कौन मित्र?
  113. को लाभो? गुणिसंगमः   लाभ क्या है?  गुणी जनों का साथ.
  114. को विदेश: सविद्यानाम्    विद्वान् के लिए कोई देश विदेश नहीं है.
  115. कोsति भार: समर्थानां    समर्थ व्यक्ति के लिए कोई कार्य भारी नहीं है.
  116. कोप पापश्च कारणम्     क्रोध ही पाप का कारण है.
  117. कोप:अपि दैवस्य वरोन तुल्य:     ईश्वर का कोप भी वरदान के समान है, अर्थात उसमें भी मनुष्य का कुछ न कुछ भला छिपा है.
  118. क्रोधः पापस्य कारणम्    क्रोध पाप का कारण होता है.
  119. क्रोधरोधो अमृतायते क्रोध का शमन करने से प्रेम उत्पन्न होता है.
  120. क्रोधान्धम् मदोन्मत्तम् नमस्कारोपि वर्जयेत    क्रोध से अंधे हो रहे या अहंकार से चूर व्यक्ति को नमस्कार भी नहीं करना चाहिए.
  121. क्रोधो हि शत्रुः प्रथमो नराणाम्   मनुष्यों का प्रथम शत्रु क्रोध ही है.
  122. क्लिश्यन्ते लोभमोहिताः लोभ से मोहित वाले सदैव दुःखी होते हैं.
  123. क्वचिद खल्वाट निर्धन:    गंजे व्यक्ति निर्धन नहीं होते.
  124. क्षणशः कणशश्चैव विद्याधनं अर्जयेत    क्षण-क्षण का उपयोग करके विद्या का और कण-कण का उपयोग करके धन का अर्जन करना चाहिये.
  125. क्षणे रुष्ट: क्षणे तुष्ट:  पल में नाराज पल में खुश.
  126. क्षते क्षारप्रक्षेप:    जले पर नमक छिड़कना.
  127. क्षमा तुल्यं तपो नास्तिक्षमा के समान कोई दूसरा तप नहीं है.
  128. क्षमा वीरस्य भूषणम्क्षमा वीरों का आभूषण है.
  129. क्षीणा: नरा: निष्करुण: भवन्ति     कमजोर लोग निर्दयी होते हैं.
  130. क्षुधा स्वादुतां जनयति        भूख लगने पर सब कुछ स्वादिष्ट लगता है. (भूख में किवाड़ पापड़ होते हैं).
  131. खरश्चन्दन भारवाही भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य. गधे के ऊपर यदि चंदन लदा हो तो उसे चन्दन के महत्व का भान नहीं होता, वह तो केवल उस के बोझ से परेशान होता है. इसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति ज्ञान और विद्या को महत्व न समझ कर उन्हें केवल बोझ ही समझता है.
  132. गत: कालो न आयाति    गया वक्त हाथ नहीं आता.
  133. गतस्य शोचन: नास्ति   जो बीत गया उसके विषय में सोचना व्यर्थ है.
  134. गतानुगतिको लोक:संसार में सब एक दूसरे की नकल कर रहे हैं. (संसार भेड़िया धसान है).
  135. गतेअपि वयसे ग्राहा विद्या सर्वात्मना बुधैः बूढा हो जाने पर भी विद्या सब भांति उपार्जना करता रहना चाहिए.
  136. गते शोको निरर्थक:   जो चला गया उसका शोक नहीं करना चाहिए.
  137. गरीयषी गुरोः आज्ञा    गुरुजनों की आज्ञा महान् होती है अतः प्रत्येक मनुष्य को उसका पालन करना चाहिए.
  138. गुणः खलु अनुरागस्य कारणं, न बलात्कारः  केवल गुणों से ही प्रेम को प्राप्त किया जा सकता है, बल प्रयोग से नहीं.
  139. गुणा: गुणज्ञेषु गुणा: भवन्ति     गुणों को जानने वाला ही गुणों की कद्र कर सकता है.
  140. गुणा: सर्वत्र पूज्यते    गुणों की सभी जगह पूजा होती है.
  141. गुणा: सर्वत्र पूज्यन्ते, पितृवंशो निरर्थक:व्यक्ति की पूजा उसके गुणों से होती है वंश से नहीं.
  142. गुणांवसन्तस्य न वेत्ति वायस:    अंधा क्या जाने वसंत की बहार.
  143. गुणाः पूजित: गुणिषु न लिंग: न वयः च   गुणियों में गुण ही पूजा का कारण है न कि लिंग या आयु.
  144. गुणेर्विहीना बहुजल्पयन्ति. गुणहीन व्यक्ति बकवास अधिक करते हैं.
  145. गुरु आज्ञा अविचारणीया   गुरु की आज्ञा में उचित अनुचित का विचार नहीं करना होता है. उसे मानना ही होता है.
  146. गुरुणामेव सर्वेषां माता गुरुतरा स्मृता सब गुरु में माता को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना गया है.
  147. गोमयीयो गणेश: गोबर गणेश. मिट्टी का माधो.
  148. चक्रवत परिवर्तन्ते दुखानि सुखानि च     सुख और दुःख सदैव नहीं रहते, बदलते रहते हैं.
  149. चराति चरतो भगः चलनेवाले का भाग्य चलता है.
  150. चारित्र्येण विहीन आढ्योपि च दुगर्तो भवति चरित्रहीन इंसान धनवान होने के बाद भी दुर्दशा को प्राप्त होता है
  151. चिंता जरा मनुष्याणाम्चिंता मनुष्य के लिए जरा (बुढ़ापे) के समान है.
  152. चिंतासमं नास्ति शरीरदूषणं   चिंता के समान शरीर के लिए कोई और दोष नहीं है.
  153. चौराणामनृतं बलम्    चोरों के लिए झूठ ही बल है.
  154. चौरे गते न किंमु सावधानम्    चोर जब चोरी कर चले गये तो फिर सावधानी से क्या?
  155. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसीजन्म भूमि स्वर्ग से भी बढ़ कर है.
  156. जरा रूपं हरतिबुढ़ापा सौन्दर्य को नष्ट कर देता है.
  157. जलबिन्दुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट:    बूँद बूँद से घड़ा भरता है.
  158. जातस्य हि धुर्वो मृत्युः  जो पैदा हुआ हैं अवश्य मरेगा.
  159. जामातो दशम ग्रहम्दामाद दसवें ग्रह के समान है.
  160. जिव्हा रोगस्य मूल:   स्वाद लोलुपता के कारण ही अधिकतर रोग होते हैं.
  161. जीवो जीवस्य भक्षक:    जीव ही जीव को खाता है.
  162. जीवो जीवस्य भोजनम् जीव, जीव का भोजन है.
  163. ज्ञानं परमं बलम्ज्ञान सबसे बड़ा बल है
  164. ज्ञानं भार: क्रियां बिना:   आचरण के बिना ज्ञान केवल भार होता है. 
  165. ज्ञानेन हीनोsपि सुबोध संज्ञा:  ज्ञान बिलकुल नहीं है पर सुबोध नाम है. गुण के विपरीत नाम.
  166. तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते श्रुतेन शीलेन कुलेन कर्मणा  आदमी चार बातों से परखा जाता हैं विद्या, शील, कुल और काम से
  167. तद् रूपं यत्र गुणाः   जिस रुप में गुण है वही उत्तम रुप है
  168. तस्करस्य कुतो धर्मः   चोर का धर्म क्या?
  169. तावत्भयस्यभेतव्यं, यावत्भयं न आगतम्   भय से तब तक ही डर लगता है जब तक भय पास न आया हो.
  170. तृणाल्लघुतरं तूलं तूलादपि च याचकः     तिनके से रुई हलकी है, और मांगने वाला रुई से भी हलका है.
  171. तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः     तृष्णा बूढी नहीं होती, हम ही बूढ़े होते हैं.
  172. तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते    तेजस्वी पुरुषों की उम्र का आकलन नहीं किया जाता है.
  173. दरिद्रता धीरतया विराजते     गरीब के लिए धैर्यवान होना शोभा देता है.
  174. दारिद्र्यदोषो गुणराशिनाशी   दरिद्रता गुणों को नष्ट कर देती है.
  175. दारिद्र्यात मरणं वरं     दरिद्र रह कर जीने से मरना अच्छा है.
  176. दीर्घसूत्री विनश्यति     काम को बहुत समय तक खीचने वाले का नाश हो जाता है.
  177. दुर्बलस्य बलं राजा    दुर्बल का बल राजा होता है.
  178. दुष्टजनं दूरतः प्रणमेत    दुष्ट आदमी को दूर से ही प्रणाम करना चाहिए.
  179. दूरत: शोभते मूर्ख:     मूर्ख मनुष्य दूर से ही दिखाई दे जाते हैं.
  180. दूरस्थ पर्वत: रम्या:    पर्वत दूर से ही अच्छे लगते हैं.
  181. दैवम् फलति सर्वत्रं, न विद्या न च पौरुषम्विद्या और पौरुष कितना भी हो, भाग्य के बिना बेकार है.
  182. दैवस्य विचित्रा गतिः भाग्य की गति विचित्र है.
  183. दैवो अपि दुर्बलं दुःखद: दैव भी दुर्बल को ही दुःख देता है. 
  184. द्रव्येण सर्वे वश:पैसे से सब को वश में किया जा सकता है.
  185. धर्मो रक्षति रक्षित:धर्म की रक्षा करने पर धर्म हमारी रक्षा करता है.
  186. धातु: परीक्षा दुर्भिक्षेबुरे समय में ही सोना चांदी की परीक्षा होती है. (जब आप उसे बेचने जाएंगे तभी उसकी गुणवत्ता मालूम होगी).
  187. धिक् कलत्रम् अपुत्रकम्  ऐसी भार्या किस काम की जो बाँझ हो.
  188. धैर्य कटु भवेत् किन्तु तस्यास्ति मधुरं फलम् संतोष कड़वा होता है किन्तु उसका फल मीठा होता है.
  189. धैर्यधना हि साधव:  सज्जन लोगों का धैर्य ही धन होता है.
  190. ध्यानशस्त्रं बकानांध्यान ही बगुले का अस्त्र है.
  191. न असत्यवादिन: सख्यंझूठ बोलने वाली से दोस्ती नहीं करनी चाहिए. इसका दूसरा अर्थ है कि असत्य बोलने वाला किसी का मित्र नहीं होता.
  192. न कूप खननम् युक्तं, प्रदीप्ते वह्निन गृहेघर में आग लगने पर कुआं खोदना किस काम का.
  193. न खलु वयः तेजसो हेतुः   वय तेजस्विता का कारण नहीं है.
  194. न गर्दभा वजिधुरं वहन्ति गधा घोड़े जितना भार नहीं ढो सकता.
  195. न च धर्मों दया पर:   दया से बढ़कर धर्म नहीं है.
  196. न ज्ञानात् परं चक्षुः  ज्ञान से बढ़कर कोई नेत्र नहीं हैं.
  197. न धर्मात् परं मित्रम्   धर्म के समान मित्र नहीं
  198. न भाति तुरग: खरयूथ मध्ये गधों के बीच घोड़ा शोभा नहीं देता.
  199. न भिक्षुको भिक्षुकात याचते  भीख मांगने वाले से भीख नहीं मांगनी चाहिए.
  200. न मातु परदैवतं  माँ से श्रेष्ठ कोई देवता नहीं है.
  201. न मूर्ख जन संसगति सुरेन्द्रभवनेश्वपि मूर्खों के साथ स्वर्ग में रहना भी अच्छा नहीं है.
  202. न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य   मनुष्य कभी धन से तृप्त नहीं हो सकता.
  203. न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्ध:जहां वृद्ध लोग न हों वह कैसी सभा.
  204. न हि कश्चि द्आचारः सर्वहितः संप्रवर्तते   कोई भी नियम नहीं हो सकता जो सभी के लिए हितकर हो 
  205. न हि कश्चित निजं तक्रं अम्लित्यभिधीयते अपने मट्ठे को कोई खट्टा नहीं बताता.
  206. न हि सत्यात् परो धर्मः सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं हैं.
  207. न हि सर्वः सर्वं जानाति  सभी लोग सब कुछ नहीं जानते हैं.
  208. नद्या निवासो मकरेण वैर   नदी में रह कर मगर से वैर नहीं किया जा सकता.
  209. नमन्ति फलिताः वृक्षाःफल लगने पर वृक्ष झुक जाता है. (इसी प्रकार संतान होने के बाद मनुष्य विनम्र हो जाता है).
  210. नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनोंः जना: जिस प्रकार फलों वाले वृक्ष झुकते हैं उसी प्रकार गुणों से युक्त व्यक्ति झुकते हैं (सूखे पेड़ और मुर्ख व्यक्ति कभी नहीं झुकते).
  211. नम्रता मानं ददाति, योग्यता स्थानं ददाति   नम्रता मान देती है और योग्यता स्थान देती है.
  212. नराणाम् नापितो धूर्तः    मनुष्यों में नाई धूर्त होता हैं.
  213. नास्ति अहंकार सम शत्रु अहंकार सबसे बड़ा शत्रु है.
  214. नास्ति क्षुधासमं दुखंभूख के समान कोई दुःख नहीं है.
  215. नास्ति त्यागसमं सुखंत्याग के समान कोई सुख नहीं है.
  216. नास्ति भार्यासमं किज्चित् नरस्य आर्तस्य भेषजम् दुःखी मानव के लिए भार्या समान कोई औषधि नहीं है.
  217. नास्ति मातृसमो गुरु    माता के समान कोई गुरु नहीं.
  218. नास्ति रागसमं दुखं आसक्ति के समान कोई दुःख नहीं है.
  219. नास्ति विद्यासमं चक्षु:विद्या के समान कोई आँख नहीं है.
  220. नास्ति सत्यसमं तप:सत्य के समान कोई तप नहीं है.
  221. नि:सारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान.ऊँची दूकान फीके पकवान.
  222. निज सदन निविष्ट: श्वान सिंहायते किम्   अपनी गली में कुत्ता भी शेर.
  223. निजाधीनं स्वगौरवंअपने अधीन होने से ही गौरव प्राप्त होता है.
  224. नियति: केन लंघयते  भाग्य से कोई पार नहीं पा सकता.
  225. निरस्तपादपे देशे एरंडोपि द्रुमायते. जहाँ नहीं रूख वहाँ अरंड ही रूख.
  226. निर्धनता प्रकारमपरं षष्टं महापातकम्    गरीबी एक प्रकार से छठा महापाप है.
  227. निर्धनानां धनं प्रभु   निर्धन के धन राम.
  228. निर्लज्जस्य कुतो भयं निर्लज्ज को क्या भय. (नंग बड़े परमेश्वर से).
  229. निर्वाण दीपे किम् तैल दानम्      बुझे हुए दिए में तेल क्यों डाला जाए. जो चीज़ किसी उपयोग की नहीं रही उस पर क्यों पैसा खर्च किया जाए.
  230. निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनंजो आसक्तियों से दूर हो जाए, उसके लिए घर भी तपोवन है.
  231. नृप: मूढ़े कुतो न्याय: राजा मूर्ख हो तो न्याय की क्या उम्मीद. अंधेर नगरी चौपट राजा.
  232. नैकत्र सर्वे गुण: सन्निपातः    सभी गुण एक ही स्थान पर नहीं मिलते.
  233. पञ्चभि: सह गंतव्यंपंचों की राय से ही काम करना चाहिए.
  234. पञ्चवर्षीय बालाया: पुत्रो द्वादशवार्षिक:    पांच साल की बाला का बेटा बारह साल का. असंभव और हास्यास्पद बात.
  235. पण्डिते हि गुणा: सर्वे, मूर्खे दोषाश्च केवला:सभी गुण विद्वत्जनों में ही होते हैं. मूर्खों में केवल दोष ही होते हैं.
  236. पय: पानं भुजनगानां केवलं विषवर्धनं सांप को दूध पिलाओ तब भी उस का विष ही बढ़ेगा.
  237. पयो गते किम् खलु सेतुबंधनं.   वर्षा के बाद पाल बाँधने से क्या लाभ.
  238. परगेहे वृथा लक्ष्मीदूसरे के घर लक्ष्मी हो तो बेकार ही है.
  239. परदुःखेनापि दुखिताः विरलाः   जो दूसरे के दुःख से दुखी होते है ऐसे विरले ही होते हैं.
  240. परलोके धनं धर्म:जो धर्म के कार्य हम इस संसार में करते हैं वही परलोक में हमारे लिए धन है.
  241. पराक्रमो विजयते  पराक्रम ही विजयी होता है.
  242. पराधीनं वृथा जन्म:पराधीन व्यक्ति का जन्म बेकार है.
  243. पराधीनो हठं त्यजेत जो पराधीन है वह हठ नहीं कर सकता.
  244. परोक्षे कार्य हन्तारं प्रत्यक्षे प्रिय वादिनंसामने मीठा बोलना, पीठ पीछे बुराई करना.
  245. परोपकाराय सतां विभूतयः महान व्यक्तियों का जीवन केवल परोपकार के लिए ही होता है.
  246. परोपदेश वेलायां शिष्टा: सर्वे भवन्ति वै. दूसरों को उपदेश देते समय सभी लोग सज्जन और शिष्ट बन जाते हैं.
  247. परोपदेशे कुशला दृश्यन्ते बहवो जन:अधिकतर लोग दूसरों को उपदेश देने में कुशल होते हैं.
  248. परोपदेशे पांडित्यं पर उपदेश कुसल बहुतेरे.
  249. परोपदेशे पाण्डित्यम् सर्वेषां सुकरं नृणाम् पर उपदेस कुसल बहुतेरे, जे आँचरन्हि ते नर न घनेरे.
  250. पश्यन्नपि न पश्यति मूढ़:मूर्ख व्यक्ति को दिखाई पड़ने वाली वस्तु भी नहीं दिखती है.
  251. पितरि प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्वदेवताः पितर प्रसन्न हो तो सब देव प्रसन्न होते हैं
  252. पितु र्हि वचनं कुर्वन् न कश्र्चिन्नाम हीयते पिता के वचन का पालन करनेवाला दीन-हीन नहीं होता.
  253. पिशाचानां पिशाच भाषैव उत्तरं देयंपिशाच को पिशाच की भाषा में ही उत्तर देना चाहिए.
  254. पुण्येः यशो लभते पुण्यों से ही यश की प्राप्ति होती है.
  255. प्रत्यक्षम् कि अनुमानंजो सामने दिख रहा है उस के लिए अनुमान लगाने की आवश्कता नहीं है.
  256. प्रत्यक्षम्किं प्रमाणं        जो सामने दिखाई दे रहा है उस के लिए प्रमाण की क्या आवश्यकता.
  257. प्रथम ग्रासे मक्षिकापातपहले ही गस्से में मक्खी गिर जाना, कार्य आरम्भ करते ही अनर्थ हो जाना.
  258. प्रयोजनम् अनुद्रिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते मंद बुद्धि मनुष्य भी बिना प्रयोजन कोई काम नहीं करता.
  259. प्राप्तकालो न जीवति    जिसका समय आ पंहुचा है वह नहीं जीता
  260. प्राप्ते तु षोडशे वर्षे गर्द्भ्यूप्यप्सरायते    16 वर्ष के होने पर तो गधी भी अपने आप को अप्सरा समझती है.
  261. प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः    निम्न श्रेणी के लोग विघ्नों के डर से कार्य प्रारंभ नहीं करते.
  262. प्रासाद शिखरस्थोपि काकः किं गरुणायते    महल के शिखर पर बैठने से कौवा गरुण नहीं बन जाता है. अर्थात बिना गुण के केवल उच्च स्थान पर बैठने से कोई बड़ा नहीं बन जाता.
  263. प्रियं च मधुरं हि वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता  हमेशा प्रिय ही बोलना चाहिए, बोलने में क्या गरीबी
  264. फलेन परिचायते वृक्ष:    फल से ही वृक्ष का परिचय होता है. (जैसे आम का पेड़, जामुन का पेड़ आदि)
  265. बलवता सह को विरोध:     बलशाली के साथ विरोध नहीं करना चाहिए.
  266. बलवती हि भवितव्यता    होनहार बलवान् होते है.
  267. बलवन्तो हि अनियमाः नियमा दुर्बलीयसाम्    बलवान के लिए कोई नियम नहीं होते, नियम तो केवल दुर्बल के लिए होते हैं.
  268. बली बलं वेत्ति न तु निर्बल: बलवान ही बल को जान सकता है.
  269. बहुभाषिण: न श्रद्दधाति लोक:    अधिक बोलने वाले पर लोग विश्वास नहीं करते.
  270. बहुरत्ना वसुन्धरा पृथ्वी बहुत से रत्नों से भरी हुई है.
  271. बह्वाश्र्चर्या हि मेदनी पृथ्वी अनेक आश्र्चर्यों से भरी हुई है.
  272. बह्वारम्भे लाघुक्रिया       खोदा फाड़ निकली चुहिया.
  273. बुद्धिः यस्य बलं तस्य    जिस के पास बुद्धि है उसी का बल काम आता है.
  274. बुद्धिर्यस्य बलं तस्य, निर्बुद्धिस्य कुतो बलः जिसके पास बुद्धि है, वास्तव में वही बलवान है.
  275. बुभुक्षितं किं निमंत्रणम्  भूखे को न्यौते की आवश्यकता नहीं होती.
  276. बुभुक्षितः किम् न करोति पापं      भूखा आदमी क्या पाप नहीं करता? अर्थ भूख आदमी से सब कुछ कराती है.
  277. भक्षिते अपि लशुन: न शान्तो व्याधि     लहसुन खाने जैसा निकृष्ट कार्य किया पर बीमारी दूर नहीं हुई.
  278. भाग्यं फलति सर्वत्र भाग्य से सब होता है.
  279. भाग्यं फलति सर्वत्र:, न विद्या न च पौरुषम्    विद्या और पौरुष कितना भी हो, बिना भाग्य के कुछ नहीं मिलता. यदि परिश्रम करने के बाद भी फल न मिलने पर कोई उदास हो रहा हो तो उसे सांत्वना देने के लिए सयाने लोग ऐसा समझाते हैं.
  280. भार्या दैवकृतः सखा  भार्या दैव से किया हुआ साथी है.
  281. भार्या मित्रं गृहेषु च   गृहस्थ के लिए उसकी पत्नी उसका मित्र है.
  282. भिक्षार्थम् भ्रमणं नित्यं, नाम: किन्तु धनेश्वर:   भीख मांगते घूम रहे हैं और नाम है धनेश्वर.
  283. भूषणं मौनमपण्डितानाम्    मूर्खों के लिए मौन रहना ही सबसे बेहतर होता है.
  284. मक्षिका स्थाने मक्षिका. ज्यों का त्यों लिख देना.
  285. मणिना भूषित:सर्प: किमसौ न भयंकर:    सांप यदि मणि से युक्त हो तब भी भयंकर ही होगा.
  286. मतिरेव बलाद् गरीयसी.    बल से बुद्धि श्रेष्ठ है.
  287. मन: शीघ्रतरं वातात्.     मन वायु से भी तेज गति से चलता है.
  288. मनसा चिंतितम् कर्म: वचसा न प्रकाशयेत     मन की चिंता को वाणी और कर्म में प्रदर्शित नहीं करना चाहिए.
  289. मनसि व्याकुले चक्षुः पश्यन्नपि न पश्यति मन व्याकुल हो तब आँख देखने के बावजूद देख नहीं सकती.
  290. मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं सुखम् कार्य की पूर्ति चाहने वाला मनस्वी व्यक्ति सुख दुख की परवाह नहीं करता.
  291. मर्कटस्य सुरापानं तत्र वृश्चिक दंशनं बन्दर ने शराब पी ली ऊपर से उसे बिच्छू ने काट लिया. (एक तो मियाँ बावले, दूजे खाई भांग).
  292. महाजनो येन गत: स पंथ:     महान लोग जिस मार्ग पर चले हों वही सुमार्ग है.
  293. महीयांसः प्रकृत्या मितभाषिणः बडे लोग स्वभाव से हि मितभाषी होते हैं.
  294. मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्     माता पिता की भली भांति सेवा करनी चाहिये.
  295. मुंडित शिरो नक्षत्र: किम् अन्वेषणम्    सिर मुंडाने के बाद मुहूर्त क्या पूछना.
  296. मुंडे मुंडे मतिर्भिन्नाप्रत्येक व्यक्ति की सोच अलग होती है.
  297. मूर्खानाम् भूषणम् मौनं  मूर्ख का सब से बड़ा आभूषण है चुप रहना.
  298. मूलो नास्ति, कुतो शाखा:    जड़ ही नहीं है तो शाखाएं कहाँ से आएंगी.
  299. मृजया रक्ष्यते रूपम् श्रृंगार से रुप की रक्षा होती है .
  300. मौन स्वीकृति लक्षणंचुप रहने का अर्थ है कि आप की सहमति है.
  301. मौनं सर्वार्थ साधनम्.चुप रहने से बहुत कुछ पाया जा सकता है. कोई आपसे झगड़ा करने पर आमादा हो तो आप के चुप रहने से झगड़ा समाप्त हो जाता है.
  302. मौनिन:कलहो नास्ति       चुप रहने वाले का किसी से झगड़ा नहीं होता.
  303. य: क्रियावान स: पंडित: कर्मशील व्यक्ति ही विद्या प्राप्त कर सकता है.
  304. यतो धर्मस्ततो जय:जहाँ धर्म है वहां विजय है, अर्थात जो धर्म पर दृढ़ रहता है अंततः जीत उसी की होती है.
  305. यत्नं विना रत्नं न लभ्यते     सेवा बिन मेवा नहीं.
  306. यत्र धूमो तत्र अग्निजहाँ धुआं दिखाई दे रहा है वहाँ आग अवश्य होगी.
  307. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताजहाँ स्त्रियों की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है.
  308. यत्र विद्वज्जनो नास्ति, श्लाघयास्ताल्पधीरपि.    जहाँ बुद्धिमान लोग न हों वहाँ कम बुद्धि वाले की भी पूछ हो जाती है. अंधों में काना राजा.
  309. यथा नाम तथा गुणजैसा नाम वैसे ही गुण.
  310. यथा बीजम् तथा निष्पत्ति जैसा बीज वैसा फल. जैसा कार्य करोगे वैसा ही फल पाओगे.
  311. यथा राजा तथा प्रजाजैसा राजा होता है प्रजा भी वैसी ही बन जाती है.
  312. यद्यपि शुद्धम् लोक विरुद्धम् न करणीयम् न करणीयम्     कोई कार्य कितना भी शास्त्र सम्मत क्यों न हो, यदि जन भावना के अनुरूप न हो तो उसे न करें.
  313. यशोवधः प्राणवधात् गरीयान्  यशोवध प्राणवध से भी बडा है.
  314. यस्य अर्था: तस्य मित्राणिजहां धन है वहां बहुत से मित्र हैं.
  315. यस्यास्ति वित्त: स: नर: कुलीन:     जिसके पास धन है वही उच्च कुल का माना जाता है.
  316. याचको याचकं दृष्टा श्र्वानवद् घुर्घुरायते याचक को देखकर याचक, कुत्ते की तरह घुर्राता है.
  317. यादृशी भावना यस्य: सिद्धिर्भवति तादृशीजिसकी जैसी भावना होती है उसको वैसी ही सिद्धि मिलती है.
  318. यादृशी शीतलादेवी, तादृशो खर वाहन:जैसा मालिक वैसा चाकर. जैसी शीतला माता (चेचक की देवी) खतरनाक हैं वैसा ही उनका वाहन (गधा).
  319. यानिकानि च मित्राणि, कृतानिशतानि च    जो कोई भी हों, सैकडो मित्र बनाने चाहिये.
  320. यावत् गृहणी तावत् कार्यंजब तक गृहणी दिखती रहेगी तब तक काम बताते रहेंगे. (आई बहू आयो काज, गई बहू गयो काज).
  321. यावत् शिर: तावत् व्यथाजब तक सर रहेगा तब तक दर्द रहेगा. जब तक जीवन है कुछ न कुछ कष्ट झेलने पड़ेंगे.
  322. यावत्जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत      नास्तिक और धूर्त प्रवृत्ति के लोगों का कहना है कि जब तक जिओ सुख से जिओ, क़र्ज़ ले कर घी पियो. (चार्वाक मत)
  323. युक्तिहीने विचारे तु धर्महानिः प्रजायते युक्तिहीन विचार से धर्म की हानि हो जाती है.
  324. यो यद् वपति बीजं, लभते तादृशम् फलम्    जैसा बीज बोओगे वैसा फल मिलेगा. जैसा बोओगे वैसा काटोगे.
  325. योगः कर्मसु कौशलम्कर्मों में कौशल ही योग है.
  326. योजनानां सहस्त्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका.    शनैः शनैः ही सही, योजना बना कर चलते रहने पर, चींटी जैसी छोटी सी जीव भी सहस्रों योजन की यात्रा पूर्ण कर लेती है.
  327. रक्षति अल्पं, यच्छति बहुलं  अधेला न दे अधेली दे.
  328. रतिपुत्रफला नारी जो रतिसुख दे सके तथा पुत्र उत्पन्न कर सके वही नारी है.
  329. रामाय स्वस्ति, रावणाय स्वस्तिराम का भी भला हो और रावण का भी भला हो. स्वार्थी लोगों का कथन.
  330. रूपेण किं गुणपराक्रमवर्जितेन जिस रूप में गुण या पराक्रम न हो उस रूप का क्या उपयोग?
  331. लुब्धानां याचको रिपुः     लोभी मानव को याचक शत्रु जैसा लगता है.
  332. लोभ पापस्य कारणम्पाप का सबसे बड़ा कारण लोभ है. लालच ही मनुष्य को पाप कर्म करने के लिए प्रवृत्त करता है.
  333. लोभः प्रज्ञानमाहन्ति लोभ विवेक का नाश करता है.
  334. लोभमूलानि पापानि सभी पाप का मूल लोभ है.
  335. वचने किं दरिद्रता     बोलने में क्या कंजूसी.
  336. वरम्अद्य कपोत: श्वो मयूरात्      कल मिलने वाले मोर से आज प्राप्त होने वाला कबूतर अच्छा है.
  337. वाग्भूषणं भूषणम् वाणी रूपी आभूषण सदा बना रहता है, यह कभी नष्ट नहीं होता.
  338. वाणिज्ये वसते लक्ष्मीः वाणिज्य में लक्ष्मी निवास करती है.
  339. विद्या धनं सर्व धनं प्रधानम्विद्या धन सब धनों से श्रेष्ठ है.
  340. विद्या या पुस्तके वृथा विद्या केवल पुस्तक में लिखी हो तो व्यर्थ है. (जो आप को कंठस्थ हो वही काम आती है.
  341. विद्या शक्तिः समस्तानां शक्तिः  विद्या की शक्ति सबकी शक्ति है.
  342. विना गोरसं को रसो भोजनानाम् बिना गोरस भोजन का स्वाद कहाँ?
  343. विनाश काले विपरीत बुद्धि.जब व्यक्ति का विनाश समीप आता है तो उस की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है.
  344. विवेकरहित: खलु पक्षपाती. जिस में विवेक न हो वह पक्षपाती होता है. अंधा बांटे रेवड़ी, फिर फिर अपनेहूँ देय.
  345. विश्वासो फलदायक:पूर्ण विश्वास से काम करने पर फल अवश्य मिलता है.
  346. विषकुम्भं, पयोमुखं. जहर से भरा घड़ा, ऊपर ऊपर दूध. मुँह में राम बगल में छुरी. 
  347. विषमस्य विषमौधम्जहर को जहर मारता है.
  348. वीर भोग्या वसुंधरावीर पुरुष ही धरा का उपभोग करते हैं.
  349. वृथा वृष्टि समुद्रेषुसमुद्र में वर्षा होने से क्या लाभ.
  350. वृद्धा वैश्या तपस्विनी वैश्या बूढ़ी होने पर तप करने का ढोंग करती है.
  351. वृद्धिमिष्टवतो मूलमपि विनष्टम्    अधिक लाभ के लालच में मूलधन भी नष्ट हो जाता है.
  352. वैदयिकी हिंसा हिंसा न भवतिकिसी मनुष्य के उपचार के लिए यदि वैद्य को हिंसा करनी पड़े (शरीर के किसी अंग को काटना पड़े) तो वह हिंसा नहीं कहलाती.
  353. शठे शाठ्यं समाचरेत   दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए.
  354. शत्रोअपि गुण: वाच्या, दोष: वाच्या गुरोरपिशत्रु में भी अगर कोई गुण है तो उस का बखान करना चाहिए और गुरु में कोई दोष है तो उसे बताना चाहिए.
  355. शरीरं व्याधिमन्दिरंशरीर बीमारियों का घर है.
  356. शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्     शरीर ही समस्त धर्मों का साधन है (अतएव शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है).
  357. शीर्षे सर्पो, देशान्तरे वैद्य:  सांप सर पर है और वैद्य बहुत दूर कहीं है (संकट सामने उपस्थित है पर उस का हल कहीं बहुत दूर है).
  358. शीलं परं भूषणम् सहनशीलता सबसे बड़ा आभूषण है.
  359. शीलं सर्वत्र भूषणम्शील सभी स्थानों पर आभूषण के समान है.
  360. शुभस्य शीघ्रम्शुभ कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए.
  361. शुभस्य शीघ्रम्, अशुभस्य कालहरणम्  अच्छे कार्य शीघ्रता से करने चाहिए और बुरे कार्यों को टालना चाहिए.
  362. श्रद्धया लभते ज्ञानं  श्रद्धा से ही ज्ञान प्राप्त होता है.
  363. श्रम एव जयते     श्रम ही विजयी होता है.
  364. श्रमं विना न किमपि साध्यम्कोई उपलब्धि श्रम के बिना असंभव है
  365. श्रोतव्यं खलु वृध्दानामिति शास्त्रनिदर्शनम् वृद्धों की बात सुननी चाहिए एसा शास्त्रों का कथन है.
  366. श्व: कर्तव्यानि कार्याणि, कुर्यादद्यैव बुद्धिमान: बुद्धिमान लोग कल के काम को आज ही कर लेते हैं. काल करे सो आज कर, आज करे सो अब्ब.
  367. संघे शक्ति कलौयुगेकलियुग में संगठन से ही शक्ति मिलती है.
  368. संतोषम् परम धनंसंतोष सबसे बड़ा धन है.
  369. संहति कार्यसाधिका.    संगठित होने से ही कार्य सिद्ध होते हैं.
  370. सत्यमेव जयतेसत्य की सदैव विजय होती है.
  371. सत्ये नास्ति भयं कचित् सांच को आंच नहीं.
  372. सत्संगति कथय किम् न करोति पुंसाम् अच्छी संगति मनुष्य का सभी प्रकार से लाभ करती है.
  373. सत्संगतिः स्वर्गवास:     सत्संगति स्वर्ग में रहने के समान है.
  374. सदोषा:खलु मानवा:       आदमी भूल चूक का पुतला है.
  375. सर्व: स्वार्थ समीहसे    अपना अपना स्वार्थ सभी देखते हैं.
  376. सर्वं परवशं दु:खंपराधीन होने में सब प्रकार के दुःख हैं.
  377. सर्वनाश समुत्पन्ने, अर्ध त्यजहिं पंडित:    अगर सारा धन जा रहा हो तो बुद्धिमान लोग आधा लुटा कर बाकी को बचा लेते हैं.
  378. सर्वम् जयति अक्रोध:क्रोध पर नियंत्रण करने से सब को जीता जा सकता है.
  379. सर्वशून्या दरिद्रता गरीबी में सभी दुःख हैं.
  380. सर्वस्य लोचनं शास्त्रम् शास्त्र सबकी आँख है.
  381. सर्वार्थसम्भवो देहः देह् सभी अर्थ की प्राप्र्ति का साधन है.
  382. सर्वे गुणा: कान्चनमाश्रयन्ते       सोने में सारे गुण बसते हैं (धनवान को ही लोग गुणी मानते हैं).
  383. सर्वे मित्राणि समृध्दिकाले समृद्धि काल में सब मित्र बनते हैं.
  384. सलज्जा गणिका नष्ट: , निर्लज्जा कुलवधू    वैश्या यदि लज्जावान हो तो नष्ट हो जाएगी और कुलवधू निर्लज्ज हो तो.
  385. सहसा विदधीत न क्रियाम्बिना विचारे कोई कार्य नहीं करना चाहिए.
  386. सा विद्या या विमुक्तयेविद्या वही है जो मुक्ति दे.
  387. साक्षात पशु: पुच्छविषाण हीन:    अनपढ़ लोगों के लिए कहा गया है कि वे पूंछ और सींग विहीन पशु की भांति हैं.
  388. साहसे खलु श्री वसति     साहस में ही लक्ष्मी का वास है. साहस करने वाला ही धन प्राप्त कर सकता है.
  389. साहसे श्री प्रतिवसति साहस में लक्ष्मी निवास करती हैं.
  390. सिद्धिर्भवति कर्मजासफ़लता का मूलमंत्र कर्म है
  391. सुखमूलम् सुसन्तति: अच्छी संतान सुख ही सुख देती है.
  392. सुखार्थिनः कुतोविद्याजो सुख के अभिलाषी हैं वे विद्या प्राप्त नहीं कर सकते.
  393. स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानाति कुतो मनुष्य:स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य को देवता तक नहीं जान सकते,  भला मनुष्य की क्या बिसात है.
  394. स्वगृहे कुक्कुरो अपि सिंहायते अपने घर में कुत्ता भी शेर.
  395. स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते राजा का सम्मान केवल उसके देश में होता है, जबकि विद्वान व्यक्ति को सब जगह सम्मान मिलता है.
  396. स्वधर्मे निधनं श्रेय:परधर्मो भयावह: दूसरे धर्म को अपनाने की अपेक्षा अपने धर्म में मरना अच्छा है.
  397. स्वभावो दुरतिक्रमः  स्वभाव का अतिक्रमण कठिन होता है.
  398. स्वयमपि लिखितं, स्वयं न वाचयति    अपना लिखा खुद न पढ़ पाएं तो. (लिखे ईसा पढ़े मूसा).
  399. स्वयमेव मृगेन्द्रता  सिंह जहाँ जाता है अपना साम्राज्य स्वयं निर्माण करता है. योग्य व्यक्तियों को किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती.
  400. स्वस्वामिना बलवता भृत्यो भवति गर्वितः जिस भृत्य का स्वामी बलवान है वह भृत्य गर्विष्ट बनता है.
  401. हितं मनोहारी च दुर्लभःऐसी कोई भी वस्तु मिलना कठिन है जो अच्छी भी लगती हो और हितकारी भी हो.