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लाल बुझक्कड़ बूझिए और न बूझा कोय, कड़ी बरंगा टार के ऊपर ही को लेय

 आज कल के बच्चे लाल बुझक्कड़ का अर्थ नहीं जानते होंगे. किसी गाँव में लाल जी नाम के सज्जन थे जो नितांत मूर्ख गाँव वालों के बीच थोड़े से बुद्धिमान अर्थात अंधों में काने राजा थे. लोग उनके पास समस्याएँ ले कर आते थे और वह अपनी बुद्धि के अनुसार उनका हल निकालते थे. (गाँव की भाषा में हल निकालने को बूझना भी कहते हैं इस लिए उन का नाम लाल बुझक्कड़ पड़ गया). एक बार गाँव में झोपड़ी के अंदर एक बच्चा बल्ली को पकड़े खड़ा था. किसी ने उसे चने दिए तो बच्चे ने बल्ली के दोनों ओर हाथ किये किये दोनों हाथों का चुल्लू बना कर उस में चने ले लिए. तभी बच्चे की माँ ने उससे घर चलने के लिए कहा. अब बच्चा अगर बंधे हुए हाथ खोलता है तो चने गिर जाएंगे, और हाथ नहीं खोलता है तो जाएगा कैसे, लिहाजा वह चीख चीख कर रोने लगा. सारा गाँव इकट्ठा हो गया, सब एक से बढ़ कर एक मूर्ख अपनी अपनी राय देने लगे. और कोई रास्ता समझ नहीं आया तो यह तय हुआ कि लड़के के हाथ काटने पड़ेंगे. तब तक लाल बुझक्कड़ आ गए. वह इस बात से बहुत नाराज हुए. उन्होंने ने राय दी कि छप्पर की कड़ियाँ और फूस हटा कर लडके को बल्ली के सहारे सहारे ऊपर उठाओ और बल्ली से बाहर निकाल दो. कोई अपने आप को अक्लमंद समझने वाला मूर्ख आदमी जब किसी समस्या का मूर्खतापूर्ण हल सुझाता है तो यह कहावत कही जाती है.

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