प्रसंग तथा सन्दर्भ
इस पुस्तक में वर्णित घटना क्रम किसी ऐतिहासिक अथवा प्रामाणिक लेखन से उद्धृत नहीं है. वास्तव में इन विषयों पर कोई प्रामाणिक लिपियाँ उपलब्ध ही नहीं हैं. पौराणिक आलेखों में बाद के समय में ऐसा बहुत सा लेखन जोड़ दिया गया है जो सम्भवतः मूल लेखों में नहीं था. क्योंकि मूल लेख उपलब्ध नहीं हैं इसलिए इन की सत्यता जानने का कोई साधन भी नहीं है. शम्बूक वध का प्रकरण महर्षि वाल्मीकि जी ने लिखा है या बाद के लोगों ने जोड़ा है यह निश्चित रूप से कोई नहीं बता सकता. यदि यह वास्तव में हुआ होगा तो उस समय की राजनैतिक परिस्थोतियों में इसके पीछे वास्तविकता क्या रही हो सकती है ऐसी कल्पना करने का मैंने प्रयास किया है. वर्ण व्यवस्था की वास्तविकता क्या रही होगी और उससे क्या लाभ या हानियाँ समाज को हो सकती हैं यह भी विमर्श प्रस्तुत करने का प्रयास किया है. सनातन धर्म के अनुसार जन्म पुनर्जन्म, समाज एवं राजा का धर्म, साम्यवादी सोच और रक्ष संस्कृति जैसे विषयों को छूने का भी प्रयास किया है.
इस पुस्तक का उद्देश्य किसी धर्म विशेष या वर्ण विशेष पर आक्षेप करने या उस का अपमान करने का बिलकुल भी नहीं है.
‘कालिया वध’ लेख में मैंने यह कहने का प्रयास किया है कि पौराणिक आख्यानों में जो भी चमत्कारों से भरी कथाएँ हैं वे वास्तव में घटी हुई भी हो सकती हैं और कोई भी तेजस्वी मानव अपनी बुद्धि व पराक्रम से ऐसे कार्य कर सकता है जो चमत्कार जैसे प्रतीत होते हैं.
इस पुस्तक में जो कुछ भी विचार मैंने व्यक्त किए हैं वे मेरे निजी विचार हैं. इस में वर्णित किसी भी सामग्री पर कॉपी राइट जैसा कोई बन्धन नहीं है. कोई भी इसको किसी भी रूप में उद्धृत कर सकता है.यह पुस्तक केवल इस लिए लिखी गई है कि हम को पौराणिक घटनाओं पर अंध विश्वास न कर के उन के विषय में तर्कपूर्ण ढंग से भी सोचना चाहिए.
अनुक्रमणिका
‘शम्बूक वध’ प्रस्तावना
1. रामराज्य
2. विचित्र समस्या
3. समाधान
4. वर्ण व्यवस्था
5. धर्म का मार्ग
6. राम का अंतर्द्वन्द
7. रक्ष संस्कृति
8. स्वार्थ का व्यापार
9. सुख का चिंतन
10. दंडकारण्य
11. घृणा का अस्त्र
12. तर्क युद्ध
13. विद्रोह का भय
14. अपरिपक्व चिंतन
15. उद्धार
उपसंहार
प्रस्तावना
सृष्टि के आरंभ से अब तक मानवता को प्रेरणा देने वाले जितने भी महानायक हुए हैं उनमें राम का सबसे विशिष्ट स्थान है. राम के जीवन चरित्र में योग्यता, पराक्रम, त्याग, विनम्रता, न्यायप्रियता, आदर्श, मर्यादा, अधर्म से सतत संघर्ष एवं दीन दुखियों व दलितों से प्रेम आदि मानवीय एवं दैवीय गुणों का जो चरमोत्कर्ष देखने को मिलता है वह उन्हें अवतारी पुरुष बना देता है. प्राचीन काल में जहां गोस्वामी तुलसीदास जी और अन्य महात्माओं ने उन्हें ईश्वर मानकर भक्ति रस की धारा बहाई (और उस संकट काल में सनातन धर्म को जीवित रखा), वहीं आधुनिक समय में सेठ गोविंद दास एवं नरेंद्र कोहली जैसे मूर्धन्य लेखकों ने उन्हें चमत्कारों से परे एक महामानव मानकर उनके जीवन से प्रेरणा लेने का मार्ग दिखाया. राम कितने भी देवतुल्य और आदर्श पुरुष क्यों न हों, हमारे समाज में कुछ छिछोरे लोग उनके जीवन के कुछ प्रकरणों पर विवाद खड़े करके उनके चरित्र पर कीचड़ उछालने का प्रयास करते हैं. शंबूक वध का प्रकरण उनमें से एक है
शंबूक के विषय में जो कथा इन षड्यंत्रकारियों ने प्रचलित की है वह इस प्रकार है – एक बार राम की राज्यसभा में एक वृद्ध ब्राह्मण अपने युवा पुत्र का शव लेकर उपस्थित हुआ. उसने राम से कहा कि उसके पुत्र की अकाल मृत्यु हुई है इस का अर्थ यह है कि राम के साम्राज्य में कहीं पर कोई घोर अनैतिक कार्य हो रहा है. गुरु वशिष्ठ ने अपनी योग बल से यह पता लगाया कि दंडकारण्य में शंबूक नाम का कोई शूद्र तपस्या कर रहा है जिसके कारण ऐसा हुआ है, उनके अनुसार मनुवादी व्यवस्था में शूद्र द्वारा तपस्या करना अपराध था. गुरु की आज्ञा पर राम ने जाकर उसका वध कर दिया जिससे वह ब्राह्मण पुत्र पुनः जीवित हो गया.
राम जैसे दीनबंधु, दलित उद्धारक, प्रजावत्सल राजा के जीवन चरित्र को समझने वाले सुबुद्धि लोग इतना तो समझते ही होंगे कि यह कहानी सत्य हो ही नहीं सकती. या तो यह केवल कपोल कल्पना है या किसी और रूप में घटी घटना को एक सुनियोजित षड्यंत्र द्वारा इस रूप में कुछ लोगों ने प्रचारित किया है. जिस युग में शूद्रकुल में जन्मे वाल्मीकि को महर्षि कह कर पूजा गया उस में शूद्र के तपस्या करने को अपराध कैसे माना जा सकता है. राम का जीवन चरित्र सनातन धर्म का एक सुदृढ़ स्तम्भ है. इस कहानी के माध्यम से राम के चरित्र को कलंकित करने तथा हिन्दू समाज के दलित वर्ग के मन में अन्य वर्गों के लिए घृणा उत्पन्न करने (एवं इस प्रकार सनातन धर्म की जड़ें खोखली करना) ये दोनों उद्देश्य पूर्ण करने का प्रयास किया गया है.
ऐतिहासिक काल में भारत एक उन्नत संस्कृति वाला समृद्ध राष्ट्र था. यहाँ की सम्पदा को लूटने और संस्कृति को नष्ट करने की इच्छा रखने वाले विदेशी आक्रान्ताओं को यह समझ में आया कि यहाँ के हिन्दू समाज को विभाजित कर के ही वे अपनी कुत्सित इच्छाएं पूरी कर सकते हैं. दुर्भाग्य से उन्हें कुछ नीच, सत्तालोलुप, देशघाती हिन्दुओं का सहयोग मिल गया जिसके कारण वे अपने उद्देश्य में सफल हो गए. ऐसे विदेशी आक्रान्ताओं और राष्ट्रद्रोही हिन्दुओं ने मिल कर इस प्रकार के प्रसंग खोज कर उन्हें विकृत कर के प्रचारित किया है.
यह उसी प्रकार का षड्यंत्र है जिस प्रकार अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकारों ने आर्यों को बाहरी आक्रमण कारी बता कर और बर्बर मुगलों का महिमा मंडन कर के हिन्दुओं को सदैव हारने वाली कायर जाति सिद्ध किया, और उन के मन में दासता की भावना उत्पन्न की.
शंबूक की कथा के पीछे वास्तविकता क्या रही होगी इसकी धर्म सम्मत और तर्कसंगत व्याख्या करने का प्रयास अपनी कल्पना द्वारा मैंने इस लेख में किया है.
निवेदक
डॉ. शरद अग्रवाल
- राम राज्य
रात्रि के द्वितीय प्रहर में भूमि पर बिछी अपनी शैया पर लेटे हुए राम आत्म चिंतन में लीन थे. जिस प्रकार की शासन व्यवस्था उन्होंने बनाई थी क्या वह आदर्श थी? राम का प्रयास तो यही था कि रामराज्य एक ऐसा उदाहरण बने जो युगों युगों तक मनुष्य को प्रेरणा दे सके. उनका चिंतन था कि हर मनुष्य सुख प्राप्त करना चाहता है परंतु समाज में रहने वाले हर व्यक्ति को व्यक्तिगत सुखों की अपेक्षा समाज के सुख को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिसके लिए अपने कुछ स्वार्थों का त्याग आवश्यक है. राम और सीता ने स्वयं ही त्याग के सर्वोच्च उदाहरण प्रस्तुत किए थे.
राम राज्य में शासन व्यवस्था बहुत सुंदर थी. शासन तंत्र को ठीक से चलाने के लिए उनके पास कुशल गुप्तचर एवं सूचना तंत्र थे, जिनके द्वारा वे प्रजा के सुख-दुख एवं प्रशासनिक अधिकारियों के कार्यो की जानकारी किया करते थे. विद्वत जनों का राम स्वयं सम्मान करते थे. उत्तम व्यवस्थाओं व स्वच्छता के कारण राज्य में महामारियाँ नहीं होती थीं. सभी लोग शारीरिक श्रम अवश्य करते थे तथा सात्विक भोजन करते थे इसलिए शारीरिक रोग बहुत कम होते थे. भोग विलास के पीछे भागने की प्रवृत्ति समाज में नहीं थी इसलिए धन कमाना जीवन का प्रधान उद्देश्य नहीं था. शासकीय व्यय बहुत कम थे, इसलिए कर एवं लगान बहुत कम लिए जाते थे. यदि प्रशासन तंत्र का कोई व्यक्ति तनिक भी भ्रष्टाचार या अपराध में संलग्न मिलता था तो उसके लिए कठोरतम दंड निश्चित थे. इन सब कारणों से भ्रष्टाचार के लिए कोई स्थान न था.
दीन दुखियों की सेवा के लिए राम सदैव तत्पर रहते थे. छुआछूत और भेदभाव की कुप्रथाओं के विरुद्ध उन्होंने सामाजिक जागरण किया था और कठोर नियम बनाए थे. राम पहले स्वयं कोई कार्य करके समाज के लिए उदाहरण प्रस्तुत करते थे, तत्पश्चात वे लोगों को उस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते थे. केवट को गले लगाने वह शबरी के बेर खाने जैसे कार्य उस समय के समाज के लिए अकल्पनीय थे, पर राम ने स्वयं ऐसा करके दिखाया था.
राम का दरबार सबके लिए खुला था. उनका न्याय सबके लिए समान था. किसी को भी दंड देने से पहले वे उसे अपराध बोध कराते थे. उनकी वाणी में सत्य का बल था. वे जब न्याय करते थे तो उनके तर्कों के समक्ष अपराधी स्वयं यह अनुभव करता था कि उसने अपराध किया है और उसे दंड मिलना चाहिए.
संसार के अन्य देशों में उस समय अविकसित मानव रहते थे जो कि हिंसक पशुओं की भांति वनों में विचरते थे. इन प्राणियों को मानवता एवं ज्ञान का संदेश देने आर्य मनीषी जाया करते थे. उनको दास बनाना या वहां से प्राकृतिक संपदा बटोरना उनका उद्देश्य नहीं था. उनका पवित्र उद्देश्य था कृण्वंतो विश्वमार्यम्, अर्थात सारी मानव जाति को ज्ञान का प्रकाश देकर श्रेष्ठ बनाना.
स्वयं कुशल प्रशासक होते हुए भी राम नीति निर्धारण के कार्यों में गुरु वशिष्ठ का मार्गदर्शन प्राप्त करते थे. उनका विचार था कि यदि धर्म की सत्ता सर्वोपरि नहीं रहेगी तो शासक शोषक बन सकता है.
2 . विचित्र समस्या
एक दिन राम के दरबार में एक वृद्ध ब्राह्मण अपने पुत्र के शव को लेकर उपस्थित हुआ. अत्यंत करुनाजनक स्वर में उसने विलाप करते हुए कहा, “राम यह क्या अनर्थ हो रहा है? आपके राज्य में मेरे पुत्र की अकाल मृत्यु कैसे हुई? हमारे जनपद में महामारी फैली हुई है. बहुत से लोग एक विचित्र ज्वर से पीड़ित हैं, उन में से कुछ लोग मूर्छित हैं और कुछ काल के गाल में समा चुके हैं. इसका कारण जानिए राजन और शीघ्र निवारण कीजिए, वरना आपके रामराज्य की कीर्ति में कलंक लग जाएगा.”
राम के मुख पर व्यथा मिश्रित चिंता के भाव उभरे, “आप कौन से जनपद से आए हैं देव” राम ने उस ब्राह्मण से पूछा. “दंडकारण्य के निकटवर्ती भूभाग से” उस ब्राह्मण ने कहा. राम कुछ विस्मित हुए. अभी कुछ समय पूर्व गुरु वशिष्ठ के दो शिष्य दंडकारण्य से कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं लेकर आए थे. गुरुदेव उन्हीं से वार्ता करने के लिए सभा से उठकर चले गए थे. राम ने तुरंत स्वयं उठकर उस युवक की देह का परीक्षण किया. वह मृत नहीं था. यह गहन मूर्छा थी. वनवास के समय ऐसी परिस्थितियां अनेक बार देखी थीं राम ने. उन्होंने तुरंत राजवैद्य को बुलवाकर उसकी चिकित्सा आरंभ करवाई. इस संबंध में सभी आवश्यक निर्देश देकर राम ने गुरु की कुटिया की ओर प्रस्थान किया.
गुरुदेव अपनी कुटिया में अपने आसन पर विराजमान थे व उनके निकट उनके दो प्रिय शिष्य अच्युत और कल्याण बैठे थे. वे दोनों वल्कल वस्त्र धारण किए थे एवं उनके मुख पर चिंता एवं थकान के लक्षण दिख रहे थे. गुरुदेव वशिष्ठ वृद्ध हो चले थे परंतु उनके मुख पर तेज था. धवल केश राशि उनकी मुख मुद्रा को और गंभीर बनाती थी. गुरुदेव ने राम को बड़े स्नेह से अपने पास बैठाया और कहा, “राम तुम्हारे ये गुरु भाई एक अत्यंत गंभीर समस्या लेकर आए हैं. इस समस्या का केंद्र बिंदु एक शंबूक नामक व्यक्ति है जोकि दंडकारण्य में विचित्र प्रकार के प्रपंच रच रहा है. उसका वंश तथा जाति अज्ञात है पर वह शूद्रों के मध्य रहता है व स्वयं को शूद्र बताता है. कुछ लोगों का मानना है कि वह खर दूषण का भगोड़ा सेवक है. वह कभी यज्ञ आदि करने का नाटक करता है व कभी पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या करने का दिखावा करता है. वह स्वयं भी स्वच्छक कर्म नहीं करता है व अन्य लोगों को भी भड़काता है कि वह यह कार्य करना बंद कर दें. उसकी बातों के प्रभाव से लोगों ने स्वच्छक कर्म करना बंद कर दिया है जिससे वहां अत्यधिक गंदगी हो गई है व महामारी आक्रमण करने लगी हैं.”
राम के मुख पर गहन चिंता के भाव परिलक्षित हुए, “ऐसा करने के पीछे उसका क्या उद्देश्य हो सकता है गुरुदेव” उन्होंने पूछा. “ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी कुछ राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं हैं जिनके लिए उसे जनाधार चाहिए” ऋषि ने कहा “जन समर्थन प्राप्त करने का सबसे आसान उपाय है, एक वर्ग के मन में दूसरे वर्ग के लिए घृणा उत्पन्न करना और उन्हें उकसाना. उसके भाषण का एक अंश यह लोग लिपिबद्ध करके लाए हैं उसे सुनकर तुम्हें स्वयं ही उसका उद्देश्य समझ में आ जाएगा. कल्याण वह भाषण एक बार पुनः पढ़ कर सुनाओ तो.”
कल्याण ने क्रमवार ताड़ पत्रों पर लिखे वाक्यों को पढ़ना आरंभ किया – “मेरे प्रिय शोषित बंधुओं! आओ अपने इस उद्धारक शंबूक की बात सुनो. अब युगों की इस निद्रा से जागो. कितनी लज्जा का विषय है कि हम दासों की भांति इतने निकृष्ट कार्य करने को विवश हैं पर फिर भी सोए हुए हैं. यह समाज के नियम बनाने वाले ब्राह्मण हमारे प्रमुख शत्रु हैं. इन्होंने अपने लाभ के लिए पाप पुण्य, स्वर्ग नर्क, ईश्वर और पुनर्जन्म आदि की कल्पनाएं गढ़ कर तैयार की हैं. इनके इस भयानक षड्यंत्र में फंसकर हम और हमारी संताने सदा सर्वदा के लिए तिरस्कार पूर्ण जीवन व्यतीत करते रहेंगे, जबकि यह सवर्ण लोग भांति भांति के आनंद उठाते हुए सदैव सुखमय जीवन बिताएंगे. हमारा दोष क्या यही है कि हमने शूद्र परिवार में जन्म लिया है? हमें तपस्या करने व शासकीय पदों पर काम करने के अवसर क्यों नहीं मिलते? हमारी संताने सुनहरे भविष्य के स्वप्न क्यों नहीं देख सकतीं?” कल्याण एक क्षण को गला साफ करने को रुका, फिर उसने आगे पढ़ना आरंभ किया, “मनु द्वारा बनाई गई इस वर्णवादी व्यवस्था में हमारा जितना शोषण हो रहा है उसके सूत्रधार यह दुष्ट ब्राह्मण हैं. शूद्रों को मूर्ख बनाने के लिए अनेक प्रकार के प्रपंच करने वाला तुम्हारा यह ढोंगी राजा राम भी इन ब्राह्मणों के हाथ का खिलौना है.
हम शूद्रों के अतिरिक्त हमारे और भी बहुत से बंधु शोषण के इस चक्र में पिस रहे हैं – जैसे श्रमिक, केवट, चर्मकार, बुनकर, वनवासी बंधु एवं राक्षस जाति के बचे खुचे पीड़ित लोग इत्यादि. हम सब शोषित और पीड़ित लोग संख्या में इतने अधिक हैं कि यदि हम जागृत व संगठित हो जाएं तो दुर्जेय बन सकते हैं. फिर क्यों ये थोड़े से लोग हम पर शासन करते हैं और क्यों हम पद दलित और शोषित हैं? अपने अधिकारों को पाने के लिए हमें अनुनय विनय नहीं संघर्ष का मार्ग अपनाना होगा. यदि हमें शूद्रों वाला जीविका कार्य करना अच्छा नहीं लगता तो कोई हमें उन्हें करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. हम में से जो लोग चाहे वे तपस्या करना आरंभ कर दें, जो व्यापार कर सकते हों वे व्यापार करें और जो साहसी युवक हैं वे अस्त्र शस्त्र चलाने का अभ्यास करें. यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है कि हम जो कार्य चाहे वह करें. हमें क्या कार्य करना चाहिए इसका निर्णय करने वाले ये ब्राह्मण कौन होते हैं. यदि हम सभी दलित बंधु कर एकजुट हो जाएं तो हम सत्ता पर अधिकार कर सकते हैं. राम ने रीछ और वानर जैसी दलित जातियों को संगठित करके रावण से युद्ध किया था. राम की रावण से व्यक्तिगत शत्रुता थी जिसके लिए उसने दलितों का उपयोग किया पर उस राम के राज्य में हमें क्या मिला? हम समता पर आधारित समाज बनाएंगे, जिसमें कोई वर्ण या आश्रम का बंधन नहीं होगा. शताब्दियों से चले आ रहे हीनता के इस कलंक को हम इन ब्राह्मणों के रक्त से धो देंगे. अब निराश न हो मेरे शोषित बंधुओं और कठिन तपस्या द्वारा अर्जित मेरे इस ज्ञान का संदेश लेकर सभी दिशाओं में फैल जाओ. जगाओ उन सब को जो युगों से सोए हुए हैं. वह दिन बहुत दूर नहीं है जब हमें अपने अधिकारों के लिए निर्णायक संघर्ष करना होगा. उठो अब नींद से जागो और पहचानो कि तुम कितनी बड़ी शक्ति हो. अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करो और जिन सुखों को पाने के अधिकारी हो उन्हें बलात ग्रहण करो.”
3. समाधान
भाषण के अंतिम भाग तक पहुंचते-पहुंचते कल्याण का मुख आवेश से लाल हो गया एवं वाणी में उद्विग्नता झलकने लगी, परंतु राम शांत रहे. अत्यंत संयत स्वर में उन्होंने कहा, “गुरुदेव आज शंबूक के परिप्रेक्ष्य में ही सही, मैं आपसे कुछ ऐसे प्रश्नों का समाधान चाहूंगा जो मेरे हृदय में बहुत दिनों से उठ रहे हैं. आज्ञा हो तो निवेदन करूं.”
मुनि की अनुभवी दृष्टि ने राम के अंतर्द्वंद को पढ़ लिया. बोले “पूछो राम! वैसे तो तुम स्वयं समस्त दर्शन के ज्ञाता हो, फिर भी मैं समाधान का प्रयास करूंगा.”
राम ने कहा, “गुरुदेव मेरा मन स्वयं भी यह सोचकर विचलित होता है कि शूद्र होना क्या एक प्रकार का दंड नहीं है. हर नवजात शिशु ईश्वर की देन है, उनमें से कुछ शूद्र बनने के लिए बाध्य होते हैं, क्या यह मानवता विरोधी नहीं है?”
ऋषि ने कुछ क्षण तक राम के प्रश्न का मनन किया. फिर बोले, “जरा सोचो राम! जो प्राणी आज शूद्र योनि में है, वह पिछले जन्म में क्या रहा होगा?”
“वह मनुष्य या पशु किसी भी योनि में हो सकता है” राम ने कहा. “इस जन्म में अपनी आयु पूर्ण करने के पश्चात वह किस योनि में जन्म लेगा?” ऋषि ने प्रश्न किया. “वह किसी भी योनि में जन्म ले सकता है” राम ने विचार पूर्वक कहा.”
“लाखों जन्म लंबी इस यात्रा में जीवात्मा कब कौन सी योनि में जन्म लेगा इसका निर्णय कौन करता है?” ऋषि जैसे राम की परीक्षा ले रहे थे. “जीव के कर्मों के अनुसार इसका निर्णय होता है” राम ने कहा. “अच्छे कर्म करने वाले जीवों को उन्नत वातावरण में जन्म मिलता है, जिससे वे मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकें, जबकि निकृष्ट कर्म करने वाले प्राणी कर्म बंधन में फंसकर कष्ट उठाते रहते हैं.”
“इसी में तुम्हारे प्रश्न का उत्तर निहित है” ऋषि ने कहा, “हमारी समाज व्यवस्था किसी शिशु को शूद्र बनने को बाध्य नहीं करती, परमात्मा का विधान उसे ऐसे परिवार में जन्म देता है जहां उसे सेवा का पवित्र कार्य करके आत्मिक उन्नति करने का अवसर प्राप्त हो सके. यह शूद्र जन्म भी हम सब के लिए मोक्ष प्राप्ति की एक सीढ़ी है. हम सभी किसी न किसी जन्म में इस सीढ़ी पर चढ़कर आत्मिक उन्नति के इस स्तर पर आए हैं. अब इसी के साथ एक प्रश्न का उत्तर और दो राम,” राम की परीक्षा अभी समाप्त नहीं हुई थी. “मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है?”
“मनुष्य का कर्तव्य है कि केवल भौतिक सुखों के पीछे भागने में अपना जन्म नष्ट न करे,” राम ने गहन विचार पूर्वक कहा. “मनुष्य को चाहिए कि धर्म के मार्ग पर चलते हुए सुख की प्राप्ति करे तथा ऐसे कर्म करे जिससे उसे कर्म बंधन से मुक्ति प्राप्त हो सके.”
इस बार ऋषि ने कल्याण की ओर देखा, “क्या शूद्र होना इस उद्देश्य की प्राप्ति में कोई बाधा डालता है या राजा होना इसमें कोई सुविधा प्रदान करता है?” “नहीं गुरुदेव,” कल्याण ने कहा, “भोग विलास में प्राप्त होने वाले क्षणिक शारीरिक आनंद को तो धन व पद से प्राप्त किया जा सकता है पर आंतरिक सुख की प्राप्ति किसी वर्ग विशेष के लिए आरक्षित नहीं है. हर वर्ण का मनुष्य धर्ममय सुख प्राप्त करने व मोक्ष की ओर अग्रसर होने का समान रूप से अधिकारी है. मेरा तो यह मानना है कि अभाव में पलने वाला व्यक्ति ईश्वर के अधिक निकट रहता है जबकि अधिक सुविधाएं और अधिकार पाने वाले व्यक्ति के पथभ्रष्ट होने की संभावना अधिक होती है.”
“बिल्कुल ठीक अब एक बात और समझो वत्स,” ऋषि ने कुछ देर रुक कर कहा, “प्रत्येक मनुष्य की महत्वाकांक्षा पूरी कर पाना और सभी भौतिक इच्छाएं पूर्ण कर पाना किसी भी समाज व्यवस्था में संभव नहीं है. यदि किसी समाज में सभी व्यक्ति यह चाहें कि उन्हें करना कुछ न पड़े परन्तु उन के पास विशाल भवन, सुसज्जित रथ, दास दासियाँ और बहुत सा स्वर्ण होना चाहिए, तो यह कैसे संभव होगा? कोई भी सत्ता सभी लोगों को यह सुविधाएँ नहीं दे सकती. इसके अतिरिक्त हम लोगों के दैनिक जीवन के लिए जो भी आवश्यक कार्य हैं उन्हें कोई न कोई तो करेगा ही. समाज में स्वच्छक, चर्मकार, सैनिक, शिक्षक, व्यापारी आदि सभी आवश्यक हैं. हमारी आवश्यकता यह है कि समाज के ही लोग इन सभी कार्यों को करें, और प्रसन्नता पूर्वक करें.
शम्बूक का यह आरोप एकदम गलत है कि तुम्हारे राज्य में शूद्रों का शोषण हो रहा है व अन्य वर्ण आनंद उठा रहे हैं. उस ब्राह्मण से अधिक पद दलित कौन है जो समाज के लिए आदरणीय कहलाता है पर उसी समाज से भिक्षा मांगकर पेट भरता है व कठोर जप तप का जीवन व्यतीत करता है. उस क्षत्रिय से अधिक शोषित कौन है जो युवावस्था में ही समाज के अन्य वर्णों की रक्षा करने के लिए अपना जीवन दान दे देता है या विकलांग हो कर जीता है. उस क्षत्रिय स्त्री के विषय में भी सोचो जो युवावस्था में ही विधवा होकर कठोर मर्यादित जीवन व्यतीत करती है. जो कृषक अपने रक्त से सींचकर खेती करता है और सब का पेट भरता है वह भी कौन सा आनंद उठा रहा है. वैश्य भांति भांति के संकट उठाकर सुदूर देशों से व्यापार करता है और सर्वाधिक कर देता है उस पर भी तो अत्याचार हो रहा है. उस राजा पर भी तो भयानक अत्याचार हो रहा है जो राज धर्म की मर्यादा को निभाने के लिए अपने परम पतिव्रता गर्भवती पत्नी को वन में भेजने के लिए बाध्य है. राम हम जानते हैं कि समय के साथ सभी समाजों में बुराइयां विकसित होती हैं. हमारे समाज में भी ऊंच-नीच, निर्धनता, वर्ण वैमनस्य, अस्पृश्यता आदि बहुत सी बुराइयां आईं थीं. इन कमियों को दूर करने का एक उपाय तो यह वर्ण व्यवस्था है जो हमारे मनीषियों ने सुझाया है, जो सभी मनुष्यों के विकास व समानता की कल्पना पर आधारित है, व दूसरा उपाय वह है जो शंबूक बता रहा है. उसके अनुसार वर्ग विशेष को सत्ता दी जाए और दूसरे वर्ग के लोगों का नरसंहार कर दिया जाए. इनमें से तुम किसे श्रेष्ठ समझते हो?
राम! शोषक और शोषित की समस्या तो उन समाजों में है जहां क्षत्रिय रक्षक न होकर भक्षक हैं, जहां धूर्त ब्राह्मण परलोक का भय दिखाकर कर्मकांडों द्वारा लोगों को ठग रहे हैं और जहां वैश्य लोग कृषक और श्रमिकों को लाभ से वंचित कर स्वयं धन लूट रहे हैं एवं कर भी नहीं दे रहे हैं. हमारे समाज में सभी वर्ण समान रूप से सम्मानित हैं व समान रूप से पद दलित हैं. हमारे यहां स्वच्छता कर्मियों को किसी का मल नहीं उठाना पड़ता जैसा राक्षस लोग करवाते थे. हां! मार्ग एवं वाटिकाओं इत्यादि को स्वच्छ करना एक आवश्यक कार्य है जो कि शूद्र वर्ण के लिए नियत है. जिस प्रकार हमारे घर की महिलाएं प्रसन्न मन से घरों को स्वच्छ रखने का कार्य करती हैं उसी प्रकार स्वच्छक वर्ग को भी प्रसन्नतापूर्वक अपने समाज को स्वच्छ करने का कार्य करना चाहिए.”
अच्युत और कल्याण गुरु के तर्कों से पर्याप्त रूप से आश्वस्त हो गए थे पर राम ने कहा, “गुरुदेव! आपकी कृपा से मेरी शंका का पर्याप्त समाधान हुआ है पर सामान्य जन से हम इस तत्व ज्ञान को समझ पाने की आशा नहीं कर सकते. सामान्य व्यक्ति सरलता से प्राप्त होने वाले सुखों की अभिलाषा करता है, जिनके लिए उसे धन एवं पद की लालसा होती है. हमारे मानवतावादी विचारक भी बार-बार यही मांग करते हैं कि जन्म के आधार पर कोई छोटा या बड़ा नहीं होना चाहिए, सभी को बराबर महत्व दिया जाना चाहिए.”
ऋषि ने तुरंत कहा, “राम क्या तुम समझते हो कि शूद्र का समाज में कोई महत्व नहीं है? किसी शरीर में मस्तिष्क, उदर व हाथ पैर तो हों पर विसर्जन प्रणाली न हो तो क्या वह शरीर जीवित रह सकता है? क्या तुम बता सकते हो कि शरीर में उदर व मस्तिष्क में से कौन अधिक महत्वपूर्ण है, हाथ और पैर में से किस का महत्व अधिक है, या आंख या नाक में से कौन अधिक महत्वपूर्ण है? सभी अंगों का अलग महत्व है. सभी अंग अपना अपना निर्धारित कार्य करेंगे तभी शरीर चल पाएगा.
यदि उदर चलना चाहे या पैर भोजन करना चाहे तो क्या जीवन संभव होगा? इसी प्रकार विभिन्न वर्ण समाज रूपी शरीर के अंग हैं. सभी अपना अपना कार्य करेंगे तो समाज स्वस्थ व दीर्घायु होगा.” ऋषि ने कुछ रुक कर कल्याण की ओर देखा और कहा, “तुम्हारा इस विषय में क्या सोचना है कल्याण?”
कल्याण ने कहा, “मैं सोचता हूं कि समाज के लिए स्वच्छता कर्म करने वाला शूद्र भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि वेदों का अध्ययन करने वाला ब्राह्मण. मार्ग स्वच्छ करते समय श्रीमन्नारायण का जाप करके प्रसन्न रहने वाला शूद्र एक महान तपस्वी है, जबकि सेवक कन्या पर बुरी दृष्टि रखने वाला ऋषि एक नीच राक्षस. किसी कार्य का महान या तुच्छ होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह समाज के लिए कितना उपयोगी है. शूद्र को स्वच्छक कर्म करते समय मन में गौरव का अनुभव करना चाहिए कि वह समाज को स्वच्छ व निरोग बनाने में अपना योगदान दे रहा है न कि यह सोचना चाहिए कि उसका शोषण हो रहा है. इससे भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि समाज के अन्य वर्ण भी उसके कार्य की महानता को समझें और उसे समाज में प्रतिष्ठा दें.”
“ठीक कहते हैं तात आप,” राम ने कहा, “पर यह कार्य व्यवहारिक रूप से इतना सरल नहीं है. समाज की रूढ़ियों को केवल नियम विधान बनाकर अचानक समाप्त नहीं किया जा सकता. इस समय आवश्यकता इस बात की है कि स्वयं राजा, ऋषि मुनि एवं समाज के संपन्न लोग अपने दलित बंधुओं के बीच जाकर उन में घुलें मिलें व उनसे समरसता स्थापित करें. यदि हम ऐसा करने में असफल हुए तो शम्बूक जैसे दुष्ट लोग जातिवादी विष में बुझी अपनी तलवार से समाज के टुकड़े कर डालेंगे।“
क्षणभर की शांति को अच्युत के प्रश्न ने भंग किया, ”गुरुदेव! हम सभी मानते हैं कि समाज के सभी वर्ण बराबर हैं. यदि कुछ विशेष व्यवस्था ऐसी बनाई जाए कि जो व्यक्ति चाहे अपना वर्ण परिवर्तित कर ले तो इससे समाज को कोई हानि है क्या?” गुरु वशिष्ठ के मुख पर एक स्निग्ध स्मिथ आई. उनके शिष्य योग्य थे एवं जिज्ञासु थे यह उनके लिए प्रसन्नता की बात थी. बोले, “बहुत सी स्त्रियां अपने पति के घर में प्रसन्न नहीं है. तुम उन्हें क्या सलाह दोगे? उन्हें अपने पति के घर पर रहकर ही सुख प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए या भौतिक सुखों की खोज में पति परिवर्तित कर लेना चाहिए. यदि उस स्त्री का पति एवं अन्य संबंधी उस पर अत्याचार करते हों तो समाज एवं शासन का कर्तव्य है कि उन्हें ऐसा करने से रोकें और यदि उचित हो तो उन्हें इसके लिए दंड दें, न कि उस स्त्री को इस बात के लिए प्रेरित करें कि वह दूसरे पुरुष से विवाह कर ले. हमारा संविधान किसी स्त्री को इस बात के लिए बाध्य नहीं करता कि उसे एक ही पति के साथ जीवन व्यतीत करना चाहिए, परंतु हम सभी जानते हैं कि यदि भौतिक सुखों की लालसा में स्त्रियां पति परिवर्तित करने लगीं तो समाज में भारी अनैतिकता व्याप्त हो जाएगी. सभी वर्णों की स्त्रियां केवल धनाढ्य व्यापारियों व राजकीय अधिकारियों से विवाह करना चाहेंगी. इसी प्रकार यदि हम फिर से वर्णमुक्त व्यवस्था बनाएंगे या वर्ण परिवर्तन को बढ़ावा देंगे तो कुछ ही लाभप्रद व्यवसायों के पीछे भागने की और अधिक से अधिक भौतिक सुख प्राप्त करने की होड़ समाज में फिर से उत्पन्न हो जाएगी.
एक बात और समझो. कोई समाज तभी सुखी हो सकता है जब उस में अधिकतर लोग संतोषी हों. जिनके अंदर संतोष की वृत्ति है वे अपने अपने वर्ण में सुखी हैं. जो असंतोषी हैं वे किसी भी वर्ण में संतुष्ट नहीं होंगे. वे प्रतिदिन वर्ण ही बदलते रहेंगे, स्वयं पीड़ित रहेंगे एवं अन्य लोगों को भी पीड़ित करेंगे.
वर्ण परिवर्तन हमारे यहां निषिद्ध नहीं है. हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां समाज के हित के लिए लोगों ने वर्ण परिवर्तन किया है. पूजनीय ऋषि वाल्मीकि जन्म से शूद्र थे. आज वे ब्राह्मण समाज में अग्रणी माने जाते हैं. महाराज अग्रसेन क्षत्रिय राजा थे पर उस समय व्यापार की आवश्यकता को देखते हुए उन्होंने पुत्रों सहित वैश्य वर्ण में प्रवेश किया. महर्षि परशुराम ने ब्राह्मण होते हुए भी अत्याचारी क्षत्रिय राजाओं का संहार करने के लिए शस्त्र उठाए. वर्णाश्रम प्रणाली को समाज पर बलात लादा गया संविधान मत समझो. यह तो मनीषियों द्वारा सुझाया गया एक मार्ग है.
एक समय था जब मनुष्यों में विवाह संस्कार का प्रचलन नहीं था. तब मनीषियों ने समाज में अनियमित यौनाचार को रोकने के लिए विवाह का नियम बनाया. बहुत से व्यभिचारी लोग विवाह को अनावश्यक बंधन मानते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कुछ लोग वर्णाश्रम प्रणाली को बंधन मानते हैं, लेकिन तुम जानते हो कि समाज में अनैतिकता रोकने के लिए विवाह बंधन कितना उपयोगी सिद्ध हुआ है. इसी प्रकार समाज में व्यवसायिक स्पर्धा और अराजकता को रोकने में वर्ण व्यवस्था बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है.”
कल्याण ने कहा, “गुरुदेव! वर्णाश्रम व्यवस्था के विषय में जरा विस्तार से बताने की कृपा करें.” ऋषि बोले, “आश्रम व्यवस्था व वर्ण व्यवस्था दोनों अलग-अलग हैं. आश्रम व्यवस्था का अर्थ है कि प्रत्येक आर्य को अपना जीवन ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास इन चार आश्रमों में बाँट कर पूरा करना चाहिए. ऐसा क्यों कहा गया है इसके विषय में मैं तुम्हें बाद में बताऊंगा. हमारा अभी का विषय वर्ण व्यवस्था से संबंधित है इसलिए इसको पहले समझो.”
4. वर्ण व्यवस्था
“वर्ण व्यवस्था के महत्व को समझने के लिए पहले हमें मानव के इतिहास को समझना होगा. विकास के क्रम में जब मनुष्य ने अकेले अकेले रहने के स्थान पर समूह बनाकर रहना सीखा और गांव व नगर बसाने आरंभ किए तब के समाज में जातियां व वर्ण नहीं थे. जिन व्यक्तियों में शिक्षा, युद्ध कौशल या अन्य कोई कला होती थी उन्हें श्रेष्ठ अथवा आर्य कहते थे. जिनमें ऐसी कोई विशेषता नहीं होती थी उन्हें अनार्य अथवा क्षुद्र कहते थे. युद्ध में पराजित जातियों के लोग भी अनार्य कहलाते थे. श्रेष्ठ व्यक्तियों के वंशज भी सामान्यत: अपने परिवार के प्रभाव से कुछ ज्ञान व कला कौशल सीख लेते थे और आर्य कहलाने लगते थे. अतः ऐसे कुछ वंश बन गए जिनमें उत्पन्न लोग आर्य ही कहलाने लगे. ऐसे लोगों ने धीमे धीमे सभी लाभप्रद व सम्मानजनक जीविकाओं पर अधिकार कर लिया, जबकि अधिक शारीरिक श्रम व कम लाभ वाले कार्य अनार्यों के हिस्से में आए. कालांतर में आर्य अर्थात श्रेष्ठ लोग अहंकारी व शोषक हो गए तथा अनार्य अधिक से अधिक विपन्न और दलित होते चले गए. एक समय पर श्रेष्ठों का मूर्खतापूर्ण अहंकार इस सीमा तक बढ़ गया कि वह क्षुद्रों को छूने में भी अपना अपमान समझने लगे. इस प्रकार समाज में अस्पृश्यता की घृणित प्रथा ने जन्म लिया.”
ऋषि ने कुछ रुक कर अपने शिष्यों के मुख्य का अवलोकन किया. वे सभी पूर्ण तल्लीनता से उनके वचनों को आत्मसात कर रहे थे. ऋषि ने आगे कहना आरंभ किया, “समाज का विघटन यहीं तक सीमित नहीं रहा. आर्यों में भिन्न-भिन्न जीविकाओं वाले बहुत से परस्पर विरोधी गुट बन गए. क्षुद्र जनों जिनको अपभ्रंश के रूप में शूद्र कहा जाने लगा था, उनमें भी अलग-अलग वर्ग बन गए. सभी वर्गों में आपस में वर्ग संघर्ष होने लगे. एक दूसरे की जीविकाएं छीनने के लिए हिंसक संघर्ष होने लगे. भिन्न भिन्न कुलों में परस्पर विवाह संबंध तो हो जाते थे पर मान्यताओं में अंतर होने के कारण वे एक दूसरे को निभा नहीं पाते थे. उनकी संतानों के सामने भी यह दुविधा रहती थी कि वे अपने मातृ कुल या पित्तृ कुल में से किस की परंपराओं को मानें.
ऐसे में मनीषियों ने सोचा कि समाज का विभिन्न वर्गों में विभाजन तो एक नैसर्गिक प्रक्रिया है. इसे रोका नहीं जा सकता पर इसे किसी न किसी प्रकार से व्यवस्थित करना पड़ेगा. उधर जातिवादी भेदभाव के साथ ही समाज के सामने दूसरी विकराल समस्या यह थी कि मनुष्य में धन और अधिकारों की लिप्सा बहुत तेजी से बढ़ रही थी. ऐसे समाजोपयोगी कार्य जिनमें श्रम अधिक व धनोपार्जन कम है उपेक्षित होने लगे. उदाहरण के लिए कृषि कार्य में लोगों की रुचि कम होने लगी व सेना के लिए सैनिक मिलना कठिन हो गए, जबकि लाभप्रद व्यापार व शासकीय सेवाओं के पीछे लोग भागने लगे. कष्ट साध्य शिक्षा पद्धति वाले गुरुकुल बंद होने लगे, जबकि वेतन लेकर अध्यापन करने वाले शिक्षकों की भरमार हो गई. चिकित्सा जैसे पवित्र कार्य को लोगों ने व्यवसाय बना लिया. समाज की सारी अर्थव्यवस्था कुछ व्यापारों पर ही केंद्रित हो गई और ऐसे विकृत पूंजीवाद ने जन्म लिया जिसमें किसी भी प्रकार से धन कमाना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य बन गया. श्रम करने वालों को उचित पारिश्रमिक न देकर मध्यस्थ व्यापारियों ने धन एकत्र करना आरंभ कर दिया एवं वे इस धन को किसी सामाजिक कार्य में न लगा कर अपने भोग विलास में व्यय करने लगे. पुरोहित परलोक का भय दिखाकर और सैनिक आतंक फैला कर लोगों को लूटने लगे. इन सब से समाज में भारी अराजकता उत्पन्न हो गई.
मनीषियों ने बहुत लंबे समय तक विचार करने के बाद एवं बहुत से प्रयोग करने के बाद यह मार्ग निकाला कि जातिवाद व पूंजीवाद इन दोनों समस्याओं को एक साथ हल करने का एक ही उपाय है, वह यह है कि भिन्न-भिन्न जीविका वाले लोगों के अलग-अलग वर्ण बना दिए जाएं. जो संतान जिस वर्ण के घर में जन्म ले उसी वर्ण के लिए नियत कार्यों को वह अपनाए. इस से समाज में मचा हुआ व्यवसायिक घमासान रुक सकता है. मनीषियों ने यह भी सुझाव दिया कि विवाह संबंध भी एक ही वर्ण के लोगों के बीच हो तभी उनमें ठीक से सामंजस्य स्थापित हो सकता है. इस वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत जप तप, अध्ययन व अध्यापन करने वाले लोगों को ब्राह्मण कहा गया, सैन्य एवं रक्षा कर्मियों को क्षत्रिय व व्यापारी एवं कृषक वर्ग को वैश्य नाम दिया गया. समस्त श्रमिक वर्ग, स्वच्छक वर्ग एवं शिल्पी वर्ग जैसे चर्मकार, बुनकर, वास्तुशिल्पी इत्यादि लोगों को शूद्र वर्ण में रखा गया. मनीषियों ने कहा कि चारों वर्णों के वे लोग जो सदाचारी हैं वह सनातन धर्म का पालन करते हैं वे आर्य माने जाएंगे एवं सभी का समान रूप से सम्मान किया जाएगा. जो व्यक्ति किसी भ्रष्ट आचरण या अधर्म में लिप्त पाया गया उसे अनार्य मानकर समाज से बहिष्कृत किया जाएगा. सभी वर्णों के बालक गुरुकुलों में एक साथ शिक्षा पाएंगे. सभी वर्णों के लिए शिक्षा व्यवस्था व चिकित्सा सुविधा राज्य द्वारा प्रदान की जाएगी. अस्पृश्यता को अत्यंत निंदनीय एवं दंडनीय अपराध माना जाएगा.
समाज का इस प्रकार से वर्गीकरण करने से जो सबसे बड़ा लाभ हमें आज दिखाई देता है वह यह है कि सामान्य व्यक्ति में संतोष की वृत्ति उत्पन्न हुई है. किसी भी वर्ण में जन्म लेने वाला बालक बचपन से जैसे वातावरण में पलता है वैसे ही संस्कारों में ढल जाता है. वह एक ही व्यवसाय में मन लगाता है व उसमें पारंगत हो जाता है. उसके मन में व्यर्थ की लालसाएं एवं महत्वाकांक्षाएं नहीं होतीं और वह सुख की मृग मारीचिका के पीछे नहीं भागता.
सामान्य व्यक्ति जन्म पुनर्जन्म आत्मिक उन्नति और मोक्ष प्राप्ति जैसे तत्व ज्ञान को नहीं जानता, फिर भी अधिकांश लोग इस व्यवस्था में संतुष्ट हैं. कुछ ही लाभप्रद व्यवसायों के पीछे भागने की प्रवृत्ति से समाज में जो अराजकता फैली हुई थी वह अब समाप्त हो गई है. उस व्यवस्था में बहुत कम लोग सुखी थे पर इसमें अधिकांश लोग सुखी हैं. सामान्य व्यक्ति के संतुष्ट होने से सारा समाज सुखी और समृद्ध हुआ है. यह मत सोचो की यह व्यवस्था सदैव चलती रहेगी. आर्य सनातन धर्म परिवर्तन शील है. इसमें कुछ नियम बनाकर किसी पुस्तक में लिख कर युगों तक लोगों पर लादे नहीं जाते. किसी भी विशेष परिस्थिति में जो भी नियम अधिकतर लोगों को लौकिक रूप से सुखी कर सकें, उन्हें आत्मिक उन्नति का अवसर प्रदान कर सकें और किसी के साथ अन्याय भी न हो ऐसे नियम बनाने का प्रयास किया जाता है.”
5. धर्म का मार्ग
कुछ क्षण रुककर ऋषि ने कहा, “राम! इस सब वार्तालाप में हम मूल प्रश्न से तो भटक गए. शंबूक के विषय में क्या सोचते हो?”
“यह अत्यंत धर्म संकट का विषय है,” राम ने कुछ चिंतित स्वर में कहा, “आप कुछ मार्गदर्शन दीजिए.”
“मुझे तो उसने अपना प्रमुख शत्रु घोषित कर रखा है” ऋषि ने विनोद पूर्ण स्वर में कहा, “जिस विवाद में मैं स्वयं अभियुक्त हूं उसमें मैं न्यायाधीश कैसे बन सकता हूं?”
राम ने दबी हुई स्मित के साथ कहा, “गुरुदेव! ताड़का वध के लिए मुनिवर विश्वामित्र जी ने मुझे आज्ञा दी थी, इसलिए मैं स्त्री हत्या करूं या न करूं इस विचार से बच गया था, क्योंकि आज्ञा पालन मेरा कर्तव्य था. इसी प्रकार शम्बूक के विषय में यदि आप मुझे कोई आज्ञा दे दें तो मैं भयंकर ऊहापोह से बच जाऊंगा.”
ऋषि का हास्य मुखर हो उठा, “तब तो वह ठीक कहता है कि तुम ब्राह्मणों के हाथ के खिलौने हो.” गुरु के इस विनोद ने राम को तुरंत उनकी मर्यादा का भान करा दिया. ऐसी परिस्थिति में राजा को ही अपने विवेक से निर्णय लेना चाहिए. राम ने विचार करते हुए अत्यंत गंभीर स्वर में कहा, “ठीक है गुरुदेव! मैं स्वयं शंबूक के पास जाकर उससे वार्ता करूंगा और उसको धर्म के मार्ग पर लाने का प्रयास करूंगा. यदि वह नहीं मानेगा तो राजद्रोह के अपराध में उसे उचित दंड दूंगा.”
“साधुवाद,” ऋषि ने कहा, “मैं तुमसे सहमत हूं राम!, पर एक बात स्मरण रखना वक्त. तुम से वार्ता के समय शंबूक अपने को शूद्रों का प्रतिनिधि बताने का प्रयास करेगा. तुम इस से भ्रमित मत होना. वह शूद्रों का शुभचिंतक कदापि नहीं है. शूद्रों की यदि कोई समस्याएं हैं भी तो उनके निराकरण में उसकी कोई रुचि नहीं है. वह केवल उन्हें साधन बना कर अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है.”
सहसा कल्याण के मुख पर चिंता के भाव उभरे. वह बोला, “राजन! आपका न्याय सर्वश्रेष्ठ है, परंतु यदि शंबूक को प्राण दंड दिया गया तो शूद्र विद्रोह कर सकते हैं.” कल्याण के इस कथन पर शेष तीनों महानुभाव कुछ सोच में पड़ गए. कुछ देर रुक कर अच्युत ने अपना विचार व्यक्त किया, “मेरे विचार से ऐसा कुछ नहीं होगा. शंबूक के विष वमन के कारण कुछ शूद्र बंधु क्षणिक आवेश में अवश्य आ गए होंगे पर वे लोक कल्याणकारी अपने राजा राम को पहचानते हैं. जो सामाजिक सम्मान और सौहार्द उन्हें राम राज्य में प्राप्त हुआ है वह उनके लिए अकल्पनीय था. फिर यह आवश्यक थोड़े ही है कि शंबूक का वध ही करना पड़े. हो सकता है कि वह दुराग्रह छोड़कर धर्म के मार्ग पर आ जाए.”
अच्युत की बात से सभी सहमत हो गए. समय नष्ट करना राम के स्वभाव में नहीं था. वह तुरंत प्रस्थान करने के लिए तैयार हो गए. महल में पहुंचकर राम ने उस वृद्ध ब्राह्मण को बुलवाया, अतिथि गृह में बैठा कर उसका सत्कार किया और कहा, “विप्रदेव! आपके जनपद में महामारी फैलने का कारण गुरुदेव ने जान लिया है. उसका निवारण करने मैं तत्काल वहां जा रहा हूं. आप से मेरी प्रार्थना है कि अपने पुत्र का पूर्ण उपचार करा कर ही यहां से प्रस्थान करें.” इसके पश्चात राम ने सुमंत को बुलवाया और तुरंत रथ तैयार करने की आज्ञा दी.
विभीषण द्वारा उपहार में दिया गया पुष्पक रथ अत्यंत द्रुतगामी रथ था. सुदूर दंडकारण्य पहुंचने के लिए राम ने उसी का प्रयोग करना उचित समझा. मंत्री परिषद के वरिष्ठ सदस्यों ने उन्हें सेना लेकर जाने की सलाह दी, पर राम ने कहा कि इससे प्रजा में दमनात्मक सैनिक कार्यवाही का भ्रामक संदेश जाएगा. जनकल्याण के किसी कार्य में यदि प्राणों का संकट भी हो तो भी पीछे हटना राम के स्वभाव में नहीं था. सदैव छाया की भांति साथ रहने वाले लक्ष्मण को भी राम ने साथ नहीं लिया. लक्ष्मण का स्वभाव उग्र था जबकि इस प्रकार की संवेदनशील परिस्थिति में अत्यधिक सहनशीलता की आवश्यकता थी. किसी सशस्त्र विद्रोह की सूचना मिलने पर तुरंत सैन्य समेत वहां पहुंचने का आदेश उन्हें देकर राम चल पड़े. मार्ग में लोगों के अभिवादन का उत्तर देते राम शीघ्र ही अयोध्या की सीमा को पार कर गए. इसके पश्चात लंबा निर्जन मार्ग आरंभ हुआ. एकांत पाते ही राम का मन गहन चिंतन में निमग्न हो गया.
6. अंतर्द्वन्द
कितनी विचित्र परिस्थितियां आती है राम के सामने और फिर कहां से इतना आत्मबल आ जाता है उनका सामना करने के लिए. बालि वध के समय भी तो कैसा धर्म संकट आया था राम के सामने. बालि ने राम के विरुद्ध तो कोई अपराध नहीं किया था. उसने राम के मित्र और शरणागत सुग्रीव पर अत्याचार अवश्य किया था पर यह ऐसा अपराध नहीं था जिसके लिए राम उसे मृत्युदंड देते, लेकिन वहां परिस्थितियां कुछ भिन्न थीं.
बालि को समाप्त करना इसलिए आवश्यक था क्योंकि वह रावण का मित्र था और रावण तक पहुंचने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा था. रावण से युद्ध करना केवल इसलिए आवश्यक नहीं था कि उसने सीता का हरण किया था अपितु इसलिए क्योंकि उसने ऐसा भ्रष्ट पंथ फैलाया हुआ था जोकि अत्याचार और व्यभिचार पर आधारित था एवं संपूर्ण मानव जाति के लिए संकट बना हुआ था. मानवता की रक्षा के लिए रावण पर विजय पाना आवश्यक था और उसके लिए बालि को रास्ते से हटाना व सुग्रीव आदि की सहायता प्राप्त करना आवश्यक था. लेकिन राम ने युद्ध की मर्यादा के विरुद्ध ओट में से बाण क्यों चलाया? क्या राम बालि को आमने सामने युद्ध में परास्त नहीं कर सकते थे? कारण यह था कि बालि साधारण योद्धा नहीं था. यदि राम उससे सम्मुख युद्ध करते तो उसे मारने के लिए उच्च क्षमता वाले दिव्यास्त्रों का प्रयोग करना पड़ता जो कि राम को रावण के साथ युद्ध करने के लिए सुरक्षित रखने थे. इसलिए राम ने उसे ओट में से बाण चलाकर मारा, यद्यपि यह तत्कालीन युद्ध की मर्यादा के विपरीत था.
ताड़का वध के समय भी स्त्री हत्या न करने की मर्यादा सामने थी. लेकिन वह मानव भक्षिणी, व्यभिचारिणी राक्षसी, स्त्री थी ही कहां? उसे स्त्री कहना तो स्वयं स्त्रीत्व का अपमान था. उसके अत्याचारों से समाज की रक्षा न करना भी तो मर्यादा के विरुद्ध था. हम अपने जीवन में मर्यादाओं के अनुसार चलने का कितना भी प्रयास करें ऐसी परिस्थितियां कभी न कभी आती ही हैं जब दो मर्यादाओं का टकराव होता है. उन आपात स्थितियों में तुरंत निर्णय लेकर उचित मार्ग का चुनाव कर पाना ही किसी व्यक्ति को महान बनाता है.
राम की सबसे कठिन परीक्षा तब हुई थी जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि प्रजा में कुछ लोग सीता की पवित्रता पर आक्षेप करते हैं. राम के मन में यह विचार आया कि वह सब राजपाट छोड़कर स्वयं सीता को लेकर वन में चले जाएं. जिस राज्य की सुख समृद्धि के लिए उन्होंने व सीता ने सदैव अपना सर्वस्व अर्पित किया, उसमें रहने वाले लोग इतनी संकुचित और निकृष्ट मनोवृति के हो सकते हैं, यह वे कभी सोच भी नहीं सकते थे. किसके लिए कर रहे हैं वे यह सब? पर फिर उन्हें लगा कि इन अबोध लोगों को बोध देने के लिए उन्हें और सीता को आत्म बलि देनी ही होगी. समाज की रूढ़ियों को धीमे धीमे ही बदला जा सकता है. नारी को भोग्या मारने वाला पुरुष समाज सदैव नारी की ओर शंका की दृष्टि से ही देखता है. दुष्ट इंद्र ने जिस बेचारी अहिल्या के साथ छल किया उस अहिल्या का ही इस समाज ने परित्याग कर दिया. इसी प्रकार साध्वी सीता को अग्नि परीक्षा देने के बाद भी अयोध्या के जनमानस ने शंका की दृष्टि से ही देखा.
राम का मन व्याकुल हो उठा. कितनी अलौकिक स्त्री है सीता? जब सीता को ज्ञात हुआ कि प्रजा के आक्षेपों के कारण राम बहुत आहत एवं व्याकुल हैं तो उनको द्विविधा से बचाने के लिए सीता ने आत्म बलिदान का मार्ग निकाला. राम की स्मृति में सीता के वे शब्द गूंजने लगे. “आर्य! आपको स्मरण होगा कि जब हम लोग वनवास कर रहे थे तो आप गहन वनों में रह रहे लोगों के कष्ट देखकर द्रवित हो उठते थे. आपने उन्हीं के बीच रहकर उनके लिए कार्य किया इसलिए वे आप के परम भक्त हो गए थे. आप कहते थे कि जो राजा महलों व नगरों तक सीमित रहते हैं वे अपनी प्रजा के कष्टों को समझ नहीं सकते व दूर नहीं कर सकते. राजा व उनकी संतानों का कुछ काल तक वन में रहना आवश्यक है जिससे वे अभावों में और संकटों में रहने वाले लोगों के कष्टों को समझ सके और स्वयं भी कठोर जीवन के अभ्यस्त बन सकें. आपके इस चिंतन को मूर्त रूप देने के लिए मैंने यह प्रण किया है कि मैं अपनी संतान को वन में जन्म दूंगी और वहां उसको बिना यह बताए कि वह राजा की संतान है, उसका पालन पोषण करूंगी.” इतना कहकर सीता दृढ़ता पूर्वक स्वयं वन जाने को उद्यत हो गई थीं. सीता के वन गमन के बाद प्रजा के लोगों ने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहकर उनका जय जयकार किया था और राम ने अपनी विवशता पर एकांत में अश्रु बहाए थे.
राम के अंतर्मन में व्यथा की एक तीव्र लहर उठी. कैसी होगी सीता इस समय और कहां होगी? पता नहीं वियोग के इस आघात को सह कर जीवित भी होगी या नहीं? कैसी होगी राम की संतान? काश राम एक बार सीता से मिल पाते एवं अपनी संतान का मुख देख पाते. राजा की मर्यादा की कैसी क्रूर परीक्षा है यह. पवित्रता की मूर्ति सीता आज परित्यक्ता का जीवन व्यतीत कर रही है. जो राम सीता को खोजने के लिए दुर्गम गिरि कंदराओं और वनों में भटके, जिन्होंने रावण का सैन्य समेत संहार करके सीता को मुक्त कराया, वही राम आज अपने स्वयं के राज्य में अपनी सीता से मिलने नहीं जा सकते. मर्यादा भंग होने का प्रश्न था. सीता के वन गमन के बाद राम ने प्रण किया था कि वे शेष जीवन सदैव भूमि पर ही सोएंगे. राम का हृदय भर आया और आंखें डबडबा आईं. कितनी बार इन कर्तव्यों की बलि चढ़ोगे राम और कितनी बार तुम्हारी प्रिया सीता आत्म बलि देगी और उस पर भी तुम्हारी प्रजा में शंबूक जैसे लोग विद्यमान है जो तुम्हें ढोंगी और शोषक कहते हैं.
7. रक्ष संस्कृति
सारथी ने अश्वों को पानी पिलाने के लिए रथ रोका तो राम का विचार प्रवाह भंग हुआ. उन्होंने सब और दृष्टि दौड़ाई तो स्मृतियों की पुस्तक के पिछले पृष्ठ खुल गए. वनवास के समय राम सीता व लक्ष्मण ने उस सारे क्षेत्र का पैदल ही भ्रमण किया था. कितना आतंक था उस समय रक्ष संस्कृति के अनुयायियों का यहां पर. रावण स्वयं तो लंका में स्थित था, पर उसके द्वारा चलाया गया राक्षस धर्म बहुत तीव्र गति से आर्यावर्त के वनांचलों में प्रवेश कर रहा था. अशिक्षित वनांचल वासियों को त्याग और आदर्श की शिक्षा देने वाली आर्य संस्कृति की अपेक्षा मांस मदिरा और व्यभिचार पर आधारित रक्ष संस्कृति अधिक आकृष्ट कर रही थी. आर्यवर्त के सीमावर्ती क्षेत्र दंडकारण्य में खरदूषण और त्रिशिरा नामक राक्षसों ने एक विशाल सैन्य शिविर बना लिया था. यहीं से आतंक की सारी गतिविधियां संचालित होती थी. सबल लोगों को मदिरा और व्यभिचार का आनंद दिलवा कर वे लोग अपने साथ मिला लेते थे और निर्बल लोगों का शोषण करके अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे.
वनांचलों में स्थान स्थान पर आर्य ऋषियों के आश्रम थे. उनका जीवन पवित्र आर्य संस्कृति के प्रचार व प्रसार के लिए समर्पित था. राक्षस उन्हें अपना परम शत्रु मानते थे. वे उनके आश्रमों पर आक्रमण करके यज्ञ आदि को विध्वंस कर दिया करते थे. राक्षसों का प्रतिकार करने के लिए आर्य मनीषियों ने बहुत से दिव्यास्त्र विकसित किए थे, परंतु वे युद्ध संचालन की नीतियों से अनजान थे. आर्यावर्त के राजाओं से उन्हें अपेक्षित सहयोग प्राप्त नहीं हो पाता था. तब राम को पाकर उनके भीतर कुछ आशा जगी थी. उनमें से अधिकतर ने अपने दिव्यास्त्र एवं अमूल्य औषधियां आदि राम को सौंप दिए थे. राक्षसों से संबंधित जो भी महत्वपूर्ण जानकारियां उनके पास थीं वे सब भी सहर्ष ही राम को दे दी थीं. सबका लक्ष्य एक ही था रक्ष संस्कृति का विनाश एवं आर्य संस्कृति का प्रसार.
रावण की तलवार और व्यभिचार पर आधारित रक्ष संस्कृति, त्याग और विश्व बंधुत्व का संदेश देने वाली आर्य संस्कृति की कट्टर शत्रु थी. मांस मदिरा का सेवन, दुर्बलों पर अत्याचार व उन्मुक्त यौनाचार यही उन राक्षसों के आनंद थे. राम रावण का युद्ध दो व्यक्तियों का युद्ध न होकर दो संस्कृतियों का संघर्ष था. एक ओर आर्य संस्कृति थी जिसे सहस्त्रों मनीषियों की कई पीढ़ियों ने युगों तक मनन करके प्रतिपादित किया था, एवं दूसरी ओर रक्ष संस्कृति थी जिसका प्रणेता अकेला रावण था. वह जो कुछ कहता था वही उसके अनुयायियों के लिए धर्म था. उसके अनुसार जीवन के दो ही उद्देश्य थे, सांसारिक सुखों का अधिकतम उपभोग व रक्ष संप्रदाय का अधिकाधिक प्रसार. राक्षसों के अतिरिक्त उन्हें हर किसी को लूटने का अधिकार था. लूटा हुआ धन व स्त्रियां उनकी संपत्ति थीं व पुरुष उनके दास. बस लूट का कुछ अंश उन्हें राजा को देना होता था. जो लोग उनकी इस संस्कृति का विरोध करते थे उन्हें वे मार डालते थे. बहुत से लोग प्राणों के भय के कारण राक्षस धर्म स्वीकार कर लेते थे. इस प्रकार के लोग चाहे विवशता में ही रक्ष संप्रदाय के अनुगामी बनते थे, अंततः राक्षसों के साथ रहते रहते उनमें से अधिकतर लोगों के भीतर भी राक्षसी संस्कार जड़े जमा लेते थे और वे भी उतने ही निकृष्ट बन जाते थे.
दक्षिण भारत की अधिकतर जनता उस समय शिवजी की उपासक थी. उन को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित करने के लिए रावण ने प्रचारित करवा रखा था कि उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उसे अनेक शक्तियां वरदान में दी हैं. वह कहता था, लिंग पूजन का अर्थ है कि शिवजी स्वयं भी उन्मुक्त यौनाचार के पक्षधर हैं. राम ने लोगों को समझाया कि आर्य सनातन धर्म के आधार स्तंभ भगवान शिव ने तो स्वयं कामदेव को भस्म किया था. वह अनैतिक यौनाचार के पक्षधर कैसे हो सकते हैं.
आर्य मनीषियों ने शिवलिंग की पूजा इसलिए आरंभ की क्योंकि सामान्य मनुष्य निराकार उपासना को नहीं समझ सकता. उसे अपना ध्यान केंद्रित करने के लिए ईश्वर की मूर्ति चाहिए. शिवलिंग एक ऐसी सरलतम मूर्ति है जिसे कोई भी कहीं भी बनाकर स्थापित कर सकता है. क्योंकि इस मूर्ति में आंख, नाक, कान, हाथ, पैर नहीं है इसलिए शिवलिंग की उपासना एक प्रकार से साकार और निराकार के बीच की एक सीढ़ी है. राम को स्मरण हो आया कि उनकी सेना जब समुद्र तट पर पहुंची तो रावण ने अपने गुप्तचरों द्वारा यह प्रचारित करवाया कि यह राम शिवद्रोही और विष्णु का उपासक है. इस ने शिव धनुष तोड़ा था. तुम लोग इसका साथ दोगे तो भगवान शिव तुम पर कोप करेंगे. उसके इस मनोवैज्ञानिक युद्ध का उत्तर देने के लिए राम ने समुद्र तट पर रामेश्वरम शिवलिंग की स्थापना की थी. रामेश्वर अर्थात राम के ईश्वर अर्थात भगवान शिव. राम ने मन ही मन भगवान शिव को प्रणाम किया.
रथ के रुकने से राम का विचार प्रवाह भंग हुआ. यहां पर कोई आश्रम था. राम ने रथ से उतरकर वहां रह रहे ऋषि मुनियों की चरण वंदना की एवं वहां के निवासियों से उनकी समस्याओं की जानकारी ली. तनिक विश्राम के उपरांत वे पुनः रथ पर आरूढ़ होकर चल पड़े. सदैव की भांति मन पुनः चिंतन में निमग्न हो गया. अब उनका ध्यान शंबूक पर केंद्रित हुआ.
8. घृणा का व्यापार
क्या चाहता है शंबूक? इस राज्य में सभी वर्ण सुखी हैं. लोग यहां तक कहते हैं कि राम के राज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक कोई भी दुख व्याप्त नहीं है. कोई भी समाज व्यवस्था प्रत्येक व्यक्ति की सभी इच्छाएं पूर्ण नहीं कर सकती. समाज के कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि लोग अपने स्वार्थों का त्याग करें. कुछ स्वार्थी लोगों को इसमें बहुत कष्ट अनुभव होता है और इस के कारण कुछ न कुछ असंतोष तो हर समाज में पाया जाता है. कुटिल लोग इसी असंतोष को उभारते हैं. वे पहले किसी वर्ग विशेष के मन में दूसरे वर्गों के लिए घृणा का भाव भरते हैं. फिर वे उन्हें हिंसा के लिए भड़काते हैं, तत्पश्चात वे क्रांति के प्रणेता बनकर सत्ता पर अधिकार कर लेते हैं. परंतु जब जब ऐसे लोग सत्तासीन होते हैं वे बहुत निकृष्ट शासक सिद्ध होते हैं. रावण के अत्याचारों से जो वनवासी एवं गिरि वासी बहुत दुखी थे उनको संगठित करके राम ने रावण से युद्ध किया, पर लंका विजय के पश्चात उन्होंने किसी भी वानर को लंका में लूटपाट व हत्याकांड करने की अनुमति नहीं दी. आर्य संस्कृति यह तो सिखाती है कि जो लोग पथभ्रष्ट हो जाएं उन्हें बलपूर्वक धर्म के मार्ग पर लाना चाहिए पर किसी जाति विशेष से घृणा करने व उसका नरसंहार करने को प्रेरित नहीं करती. राम ने लंका की सत्ता पर स्वयं अधिकार न करके राक्षसों के उत्तराधिकारी विभीषण को ही सत्ता सौंप दी क्योंकि उनका उद्देश्य सत्ता प्राप्ति नहीं अपितु धर्म की स्थापना करना था.
9. सुख का चिंतन
राम का चिंतन अब दूसरी दिशा में अग्रसर हुआ. यह ठीक है कि संसार के सभी प्राणी सुख प्राप्त करना चाहते हैं, पर यह सुख है क्या? बहुत से लोग भोग विलास में इंद्रियों से प्राप्त होने वाले आनंद को ही सुख मानते हैं. ऐसे लोग यह कहते पाए जाते हैं कि एक ही तो जीवन मिला है जीने के लिए, इस में जितना सुख उठा सकते हो उठा लो. यदि इसी को सत्य मान लिया जाए तो प्रत्येक व्यक्ति यह चाहेगा कि उसे बिना कष्ट उठाए सभी सुविधाएं प्राप्त हो जाएं. जब अपने लिए सुख सुविधाएं जुटाना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य होगा तो लोग पशुओं की भांति दूसरों के मुख से ग्रास भी छीन लेंगे. पुरुष अपने सुख की प्राप्ति के लिए व्यभिचारी हो जाएंगे. फिर वे अपनी पत्नी तक ही क्यों सीमित रहेंगे? स्त्रियां यह चाहेंगी कि उनके पति के जीवन का उद्देश्य केवल उन्हें सुखी रखना ही होना चाहिए. वृद्ध माता-पिता को अनावश्यक भार समझा जाएगा. राजा विलासी व निरंकुश हो जाएंगे एवं प्रशासनिक अधिकारी भ्रष्ट व शोषक. ऐसे में क्या कोई सुखी हो सकेगा?
सुखी होने के लिए यह समझना आवश्यक है कि सुख कोई क्षणिक आनंद नहीं है. यह तो मन के भीतर से उपजने वाला एक स्थाई भाव है. यह स्थाई भाव केवल संतोष की वृत्ति से ही आ सकता है. हम कर्म तो निरंतर करते रहें, लेकिन उससे जो भी फल मिले उसमें संतोष करना सीखें तभी हम सुखी हो सकते हैं
भोग विलास के पीछे भागने वालों के सामने एक समस्या और आती है. जिस वस्तु की हम इच्छा करते हैं उसके मिल जाने के पश्चात उससे मिलने वाला सुख कम होने लगता है. फिर नए सुख की खोज में मन भटकने लगता है. मनुष्य को कितना भी कुछ मिल जाए, सुख प्राप्ति की उस की लालसा कम नहीं होती.
आर्य संस्कृति मनुष्य को इंद्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले आनंदों को भोगने के लिए मना नहीं करती पर साथ ही उनमें आसक्त न होने का उपदेश भी देती है. संसार के सभी प्राणी सुख पाने के लिए व्याकुलता से भटक रहे हैं पर वे यह नहीं समझते कि सुख किसी वाह्य वस्तु में नहीं अपितु अपने भीतर छिपे आत्म संतोष में ही है. इस वास्तविक सुख को प्राप्त करने के लिए यह बात गौण है कि मनुष्य ब्राह्मण है या शूद्र, धनी है या निर्धन अथवा राजा है या अनुचर. ईश्वर ने आत्म संतोष प्राप्त करने का अधिकार सभी को समान रूप से दे रखा है.
राम ने सोचा यदि सामान्य मनुष्य की बुद्धि से सोचा जाए तो राम और सीता संसार के सबसे दुखी प्राणी प्रतीत होंगे. कठोर वनवास, स्थान स्थान पर भीषण युद्ध, सीता का हरण एवं त्रास, राम रावण युद्ध की विभीषिका, सीता का वन गमन और अब विरह युक्त मर्यादित जीवन. परंतु राम इस सब के पश्चात भी दुखी हैं क्या? नहीं! वह तो एक अलौकिक सुख का अनुभव करते हैं, जो सामान्य व्यक्ति की बुद्धि से परे है.
राम को बहुधा यह अनुभव होता था कि उनका जन्म कुछ विशेष प्रयोजनों के लिए हुआ है. उनके पास से सूचनाएं पहुंचती थी कि समकालीन ऋषि उन्हें विष्णु का अवतार मानते हैं. क्या यह सत्य हो सकता है? राम ने सोचा, मैंने ऐसा कौन सा कार्य किया है जो मनुष्य के लिए संभव नहीं है. सभी मनुष्य ईश्वर का रूप ही तो हैं. यह माया का आवरण भी तो ईश्वर का ही बनाया हुआ है. राम को ऐसी अनुभूति हुई जैसे वे सारे ब्रह्मांड में व्याप्त हैं व समस्त चराचर जगत उनके भीतर समाया हुआ है. यह आर्य तत्व ज्ञान की चरम अनुभूति थी जो मनुष्य को ईश्वर से एकाकार कर देती है. राम के अंतःकरण में अथाह करुणा उपजी. समस्त प्राणियों के दुख दूर करने का प्रयास वे सदैव करते रहेंगे. इसके लिए उन्हें कष्ट उठाने पड़ें तब भी और उन पर कोई निकृष्ट आक्षेप करे तब भी.
पर एक आशंका राम को सताती थी कि जैसा जीवन राम बिता रहे हैं वैसा कठोर और संघर्षमय जीवन जीना सामान्य सांसारिक मनुष्य के वश की बात नहीं है. ऐसे में लोग उनके द्वारा दिखाए मार्ग पर चलने के स्थान पर उन्हें ईश्वर मानकर उनकी पूजा करने लगेंगे. राम के जीवन में केवल त्याग और मर्यादा को ही उच्च स्थान प्राप्त है, रस एवं आनंद का उसमें सर्वथा अभाव है. सामान्य मनुष्य रस का अभिलाषी होता है जो उसे प्रेम, वात्सल्य, हास्य व संगीत आदि में प्राप्त होता है. राम ने अपने आपको एक ऐसे रूप में देखने की कल्पना की जिसके मुख पर निराशा को धो डालने वाली भुवन मोहिनी मुस्कान हो, जो अद्भुत पराक्रमी व तत्व ज्ञानी होने के साथ संगीत, नृत्य व समस्त कलाओं का ज्ञाता हो. संभवत ऐसा कोई रूप धारण करके राम लोगों को आनंद प्राप्त करते हुए धर्म के मार्ग पर चलना सिखा सकेंगे. पर अब इस जन्म में राम के लिए ऐसा रूप धारण कर पाना संभव नहीं है. इसके लिए राम को एक और जन्म लेना होगा.
10. दंडकारण्य
गहन आत्मचिंतन में इस प्रकार लीन थे राम कि कब दंडकारण्य आरंभ हो गया इसका आभास ही न हुआ. वनवास के समय राम लक्ष्मण और सीता ने यहां कुछ अधिक समय निवास किया था इसलिए राम इस क्षेत्र से भली भांति परिचित थे. इसी दंडक वन में उन्होंने खर दूषण और त्रिशिरा से भीषण संग्राम किया था. इस क्षेत्र में राम को अत्यधिक अस्त व्यस्तता, गंदगी व कीट मक्षिकाएँ आदि दिखाई दिए सारथी ने मार्ग चलते लोगों से शम्बूक के निवास के विषय में पूछकर रथ को वहां पहुंचा दिया. एक विचित्र दिव्य रथ को देख कर बहुत से लोग कौतूहल वश वहाँ एकत्र हो गए.
शंबूक की कुटिया के समीप ही एक बड़ा सा वृक्ष था. उस पर एक व्यक्ति वृक्ष की शाखा को अपने घुटनों में जकड़ कर उल्टा लटका हुआ था. यह शंबूक ही होगा, राम ने अनुमान लगाया. कोई ढोंगी व्यक्ति ही इस प्रकार कोलाहल पूर्ण स्थान में उल्टा लटक कर तपस्या करने का नाटक कर सकता है, राम ने सोचा. गंभीर तपस्वियों को तो एकांत की आवश्यकता होती है जो उन्हें गहन वन में ही मिल सकता है. सारथी ने आगे बढ़कर शंबूक को अभिवादन किया और कहा, “हे आर्य शंबूक! रघुकुल भूषण महाराजाधिराज श्री राम चंद्र आप से वार्ता करने के लिए पधारे हैं. कृपया समाधि भंग करके उनका स्वागत कीजिए. शंबूक की स्त्री ने अपरिचित स्वर सुना तो वह तुरंत बाहर आई. बाहर आते ही उसकी दृष्टि राम पर पड़ी. राम की निष्पाप तेजस्वी छवि को वह देखती रह गई. न्याय एवं मर्यादा की मूर्ति राम, उनके मुख पर त्याग का प्रखर तेज था, उनके नेत्रों में अथाह करणा थी. उनका विशाल वक्ष एवं पुष्ट भुजाएं शौर्य का आगार प्रतीत होते थे. उनकी मुद्रा में दृढ़ आत्मविश्वास व विनम्रता का अद्भुत समन्वय था. उसे उनकी मुखाकृति में क्रोध व राजसी दर्प किंचित मात्र भी दिखाई नहीं दिए. उसने कभी ईश्वर को नहीं देखा था पर इससे श्रेष्ठ और कोई हो सकता है क्या? शंबूक की स्त्री ने मन ही मन राम को प्रणाम किया. ऐसे ईश्वर तुल्य राम के लिए उसका पति इतना दुर्भाव रखता है इस पर उसे अत्यधिक ग्लानि हुई.
शंबूक कुछ देर आंखें बंद किए रहा. फिर उसने धीमे-धीमे आंखें खोली और कुटिल स्वर में बोला, “शंबूक की तपस्या का बल अंततः राज राजेश्वर राम को उसकी कुटिया तक खींच ही लाया.” राम ने कहा, “हे आर्य शंबूक मुझे ज्ञात हुआ है कि तुम वर्तमान समाज व्यवस्था से विद्रोह कर रहे हो. तुम स्वयं भी स्वच्छक कर्म नहीं करते व अन्य लोगों को भी स्वच्छता करने से रोकते हो. गंदगी के कारण यहां महामारी फैल रही है जिसका उत्तरदायित्व सीधा तुम पर आता है. तुम शांति प्रिय प्रजा जनों को सशस्त्र क्रांति के लिए उकसा रहे हो इस कारण तुम पर राजद्रोह का गंभीर आरोप है. तुम संभवत नहीं जानते कि राज्य के संविधान में इन गंभीर अपराधों का दंड क्या है. मैं चाहता हूं कि तुम घृणा का मार्ग छोड़कर धर्म और प्रेम के मार्ग पर आ जाओ. यदि तुम हठधर्मिता नहीं छोड़ोगे तो संविधान के अनुसार मैं तुम्हें प्राण दंड देने के लिए विवश होऊँगा.”
शंबूक अब वृक्ष से उतर कर सीधा खड़ा हो गया और बोला, “मुझे आर्य मत कहो राम, मैं शूद्र हूं शूद्र. तुम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते हो. तुम धर्म के रक्षक हो. लेकिन क्या धर्म है और क्या अधर्म इसका निर्णय कौन करेगा? यह कौन सा धर्म है कि तुमने राजा के घर में जन्म लिया है इसलिए तुम राजा हो और मैंने शूद्र के घर में जन्म लिया है इसलिए मैं शूद्र. क्या तुम मुझे इसलिए मृत्युदंड दोगे कि मैं शूद्र बनकर रहना नहीं चाहता?”
राम बिल्कुल संयत रहे उन्होंने कहा, “आर्य शंबूक! धर्म अधर्म का निर्णय न केवल तुम कर सकते हो न केवल मैं. धर्म ऐसी वस्तु नहीं है कि कोई एक व्यक्ति अपने विचारों को ईश्वर का आदेश बता कर एक पुस्तक में लिख दे और उसे धर्म कहकर बलात सब पर थोपा जाए. यह तो योगी मनीषियों द्वारा युगों तक चिंतन करके प्रतिपादित किया गया वह विवेक है जो हमें विभिन्न परिस्थितियों में क्या कर्म करना चाहिए इसका बोध कराता है. धर्म वह मार्ग है जिस पर चलकर हमें मानव जीवन के अपने उद्देश्य को पूर्ण करना है. शंबूक! हमारी समाज व्यवस्था किसी को ब्राह्मण या शूद्र बनकर रहने के लिए बाध्य नहीं करती. यह वर्ण व्यवस्था केवल मनीषियों द्वारा सुझाया गया एक मार्ग है जिस पर स्वेच्छा से चलकर समाज उन्नति एवं शांति की ओर अग्रसर हुआ है. हमारी राज्य व्यवस्था एकाधिकार वादी नहीं अपितु लोकतांत्रिक है. जो लोग इस समाज व्यवस्था में संतुष्ट नहीं हैं उनसे हमारा आग्रह है कि वे सभी वर्गों के प्रतिनिधियों के साथ बैठें व इस में सुधार के लिए अपने रचनात्मक सुझाव दें. उन पर विचार करके यदि वे समस्त समाज के लिए हितकर हुए तो उन्हें लागू किया जाएगा. प्रत्येक व्यवस्था में परिवर्तन अवश्यंभावी है. परिवर्तन संसार का नियम है. परंतु स्मरण रखो कि समाज में परिवर्तन धीमे-धीमे ही होते हैं. किसी भी व्यवस्था को हिंसा के द्वारा नष्ट करके नया समाज बनाने की कल्पना केवल मूर्खता है. कोई भी व्यक्ति यदि ऐसा प्रयास करेगा तो हमारा संविधान उसे प्राणदंड देगा चाहे वह किसी भी वर्ण का क्यों न हो. यदि तुम तपस्या करना चाहते हो तो किसी योग्य गुरु के मार्गदर्शन में तत्वज्ञान का अध्ययन करो. यदि तुम समाज के कल्याण के लिए तपस्या करोगे तो तुम भी पूज्य वाल्मीकि जी के समान शूद्र से महर्षि बन जाओगे. अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए तो राक्षस तपस्या करते हैं.”
11. घृणा का अस्त्र
शंबूक के ऊपर राम के तर्कों का कोई प्रभाव नहीं हुआ. वह धृष्ट स्वर में बोला, “राम! मनुष्य होने के नाते मेरा यह जन्म सिद्ध अधिकार है कि मैं जैसे चाहूँ वैसे रहूं. तुम और तुम्हारा यह ब्राह्मण समाज यह निर्धारित करने वाले कौन होते हैं कि मुझे शूद्र बन कर जीवन बिताना पड़ेगा.” “मनुष्य होने के नाते तुम्हारे कुछ जन्मसिद्ध कर्तव्य भी तो हैं शंबूक,” राम ने उतने ही संयत स्वर में कहा, “यदि सभी कृषक शासकीय सेवा करना चाहेंगे तो अन्न कहां से आएगा? इसी प्रकार यदि सभी स्वच्छक तपस्या करना चाहेंगे तो स्वच्छता कैसे होगी? महामारियों को कैसे रोका जाएगा?”
शंबूक की कुटिया के बाहर अब तक सहस्त्रों बाल वृद्ध नर नारी एकत्र हो चुके थे. शंबूक मन ही मन पुलकित हुआ. आज उसकी प्रतिभा की परीक्षा थी. यहां उपस्थित लोगों के मन मस्तिष्क को उसने पहले ही बहुत प्रभावित कर रखा था. आज वह अपने तर्कों से राम को परास्त करेगा. इतने जनसमूह के बीच वह सुरक्षित था. आज राम को यहां से असफल होकर लौटना पड़ेगा, जिससे उसे भारी कीर्ति मिलेगी व उसके समर्थकों का उत्साह बढ़ेगा. शंबूक ने अपने स्वर को उच्च किया जिससे वहां उपस्थित लोग उसे सुन सकें. वह व्यंगात्मक स्वर में बोला, “राम तुम्हारा धर्म कैसा है जो किसी शूद्र के छू लेने मात्र से नष्ट हो जाता है. यदि यही तुम्हारा धर्म है तो हम लोगों को ऐसे धर्म से घृणा है.” राम ने किंचित कठोर स्वर में कहा, “शंबूक! छुआछूत एक सामाजिक कुप्रथा है. उसका किसी धर्म से संबंध नहीं है. उसे धर्म का नाम देकर आर्य सनातन धर्म की पवित्रता पर कीचड़ मत उछालो. यह कुछ मूर्ख अहंकारी आर्यों की व्यक्तिगत मान्यता है कि किसी शूद्र के छू लेने से उनका धर्म नष्ट होता है. इस सामाजिक बुराई को दूर करने के लिए मैं सतत प्रयास कर रहा हूं.”
“तुम्हारा यह प्रयास केवल छलावा है राम,” शंबूक ने घृणा निश्चित स्वर में कहा, “अस्पृश्यता जन-जन के हृदय में बसी हुई है. जिन ब्राह्मणों के बताए मार्ग पर तुम चलते हो वही इसके सबसे बड़े पोषक हैं. ये ब्राह्मण हमें अपने यज्ञ में प्रवेश नहीं करने देते. अब हम स्वयं यज्ञ करेंगे और उनमें इन ब्राह्मणों को प्रवेश नहीं करने देंगे. जो ब्राह्मण हमें यज्ञ करने से रोकेंगे उनकी हम यज्ञ में बलि देंगे,” शंबूक की मुखाकृति वीभत्स हो उठी.
राम क्रोधित नहीं हुए वे जानते थे कि शंबूक उनके क्रोध को भड़काने का प्रयास कर रहा है. अस्पृश्यता एक वास्तविक समस्या थी इसका भी उन्हें भली-भांति ज्ञान था. उन्होंने समझाने वाले स्वर में कहा, “शंबूक! यह एक बहुत संवेदनशील विषय है जिसे बहुत धैर्य एवं विवेक पूर्वक सुलझाने की आवश्यकता है. समाज की मनस्थिति को परिवर्तित करने में समय लगता है. अस्पृश्यता को दूर करने के लिए मैंने कठोर नियम बनाए हैं. पर केवल नियम विधान से परस्पर प्रेम व आदर का भाव उत्पन्न नहीं किया जा सकता. सामाजिक सौहार्द तभी आ सकता है जब सभी वर्गों के लोग साथ बैठें, एक दूसरे की समस्याओं पर विचार करें, एक दूसरे के लिए त्याग करें व दूसरों की भूलों को क्षमा करें. हमारे वेद सभी वर्णों के कल्याण की कामना करते हैं – रुचं नो धेहि ब्राह्मणेषु, रुचं राजसु नस्कृधि, रुचं विश्येषु शूद्रेषु, मयि धेहि रुचा रुचं. ऋग्वेद के इस मंत्र में हम समाज के सभी वर्णों के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं.”
“यह सब धोखा है,” शंबूक झट से बोला, “मुझे वेदों से घृणा है. वेद, उपनिषद, स्मृतियां, पुराण ये सभी ब्राह्मणों की सत्ता के स्तंभ हैं. ये हमें नशा देकर सुलाने के लिए लिखे गए हैं, जिससे हम अपनी वास्तविक शक्ति को भूलकर इन धूर्त ब्राह्मणों के दास बने रहें.” शंबूक अब अपने चारों ओर खड़े लोगों को उत्तेजित करने का प्रयास कर रहा था. राम ने पुनः क्रोध रहित स्वर में कहा, “स्वार्थ लिप्सा ने तुम्हें अंधा बना दिया है शंबूक. जरा यह तो सोचो कि अपने राजनैतिक लाभ के लिए तुम समाज के विभिन्न वर्गों के बीच घृणा की एक ऐसी खाई उत्पन्न कर रहे हो जो युगों तक नहीं भरी जा सकेगी. आज तुम शूद्रों को संगठित कर के ब्राह्मणों का रक्त बहाने के स्वप्न देख रहे हो. कल यह ब्राह्मण संगठित होकर शूद्रों का रक्त बहाने के स्वप्न देखेंगे इस रक्त पिपासा से कोई सुखी होगा क्या? अपने लाभ के लिए इन निरीह संतोषी मनुष्यों का मानसिक शोषण तुम क्यों कर रहे हो.”
“शोषक मैं नहीं शोषक तुम हो राम,” शंबूक ने तुरंत फुफकारते हुए कहा. तुम्हारी यह साम्राज्यवादी व्यवस्था व तुम्हारा यह रूढ़िवादी समाज हमारे शोषण को अपना धर्म मानते हैं और तुम हम से यह अपेक्षा करते हो कि हम धर्म पालन के नाम पर अपने को सताया जाता हुआ देखते रहें. जब तक शंबूक का उत्कर्ष नहीं हुआ था तब तक कई युगों से यह कपट पूर्ण व्यवस्था चल रही थी. आज जब शंबूक तुम्हारे इस आडंबर की धज्जियां उड़ा रहा है तो तुम और तुम्हारा ब्राह्मण समाज तिलमिला उठा है. मैंने प्रण किया है कि मैं मृत्यु पर्यंत इस अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करूंगा.”
12. तर्क युद्ध
राम ने कहा, “शंबूक! मेरी राज्य व्यवस्था साम्राज्यवादी नहीं विशुद्ध लोकतांत्रिक है. मेरे राज्य में साधारण से साधारण व्यक्ति के मत का भी पूर्ण सम्मान किया जाता है. एक धोबी के आक्षेप पर महारानी सीता का वन गमन तुम्हें स्मरण होगा. हां! मैं यह अवश्य चाहता हूं कि लोग अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर समाज के हित के लिए सोचें. एक बात और शम्बूक, तुमने अन्याय और अत्याचार से लड़ने का प्रण किया हुआ है यह बहुत अच्छी बात है. तुम यज्ञ और तपस्या करना चाहते हो यह भी अति उत्तम है,” राम के स्वर में थोड़ा व्यंग झलक रहा था, “तुम्हें यहां के शूद्र वर्ण से बहुत सहानुभूति है?”
शंबूक ने कहा, “हां है”
“तुम्हारे अनुसार मेरे राज्य में इस वर्ग पर अत्याचार हो रहे हैं?” राम ने पुनः पूछा.
“हां शोषण, अन्याय, अत्याचार सभी कुछ हो रहे हैं,” शंबूक ने उसी प्रकार तिरस्कार पूर्वक कहा.
“तुम अन्याय सहन नहीं कर सकते?” राम ने पुन: पूछा.
शंबूक ने उतनी ही शीघ्रता से कहा, “हां मैं अन्याय कदापि सहन नहीं कर सकता. मैंने बाल्यकाल से ही अन्याय के विरुद्ध लड़ने का संकल्प किया हुआ है. मैं सामाजिक न्याय के लिए प्राण भी दे दूंगा.”
“तो यह बताओ शंबूक कि इसी दंडकारण्य के निवासी जब खर दूषण और त्रिशिरा के अत्याचारों से त्रस्त थे तब तुमने इनके लिए क्या किया?” राम ने कहा, “उस भयानक आपातकाल में तुम्हारा यह सामाजिक न्याय कहां था? वे विलासी राक्षस यहां के लोगों को अपना और अपने पशुओं का मल उठाने के लिए बाध्य करते थे. उस समय तुम चुपचाप उनका मल उठाते रहे. वे राक्षस यहां की मातृशक्ति को अपनी घृणित इच्छाओं की पूर्ति के लिए बाध्य करते थे. उस समय अन्याय से संघर्ष करने की तुम्हारी यह आकांक्षा क्यों नहीं जागी?”
शंबूक अपने ही जाल में फंस गया था. वह तत्काल कोई उत्तर न दे सका. उपस्थित जनसमूह को राम का यह तर्क समझ में आया. लोग परस्पर बातें करने लगे, ठीक कहते हैं राम. अधिकांश वयस्क लोगों को राक्षसों के अत्याचार और फिर राम लक्ष्मण द्वारा अपने प्राण संकट में डाल कर किया गया भीषण युद्ध स्मरण हो आए. शंबूक कुछ बोलने को उद्धत हुआ पर उसके कुछ कह पाने के पूर्व ही राम ने अपनी बात आगे बढ़ाई, “जिन ब्राह्मणों से तुम इतनी घृणा करते हो उन्होंने अपने प्राणों की चिंता न करके उस संकट काल में भी यज्ञ और तप की परंपरा को जीवित रखा. उनमें से बहुतों को दुष्ट राक्षसों ने यज्ञ की अग्नि में झोंक दिया पर वे अपने व्रत से विचलित नहीं हुए. तब तुम्हारे मन में यह बात क्यों नहीं आई कि तुम्हें स्वच्छक कर्म नहीं अपितु यज्ञ और तपस्या करना चाहिए?”
शंबूक के पास इस कटु सत्य का कोई उत्तर नहीं था. उसने सोचा यदि वह इस विषय को नहीं बदलेगा तो तर्क में परास्त हो जाएगा. वह बोला, “राम! इस व्यर्थ इतिहास को पलट कर वर्तमान प्रश्न से मेरा ध्यान न हटाओ. मैं और मेरे यह सहस्त्रों दलित बंधु तुम्हारी वर्ण व्यवस्था को मानने से इनकार करते हैं और तुम्हारे धूर्त ब्राह्मण समाज से इस विषय में तर्क वितर्क करना व्यर्थ समझते हैं. तुम्हारी यह वर्ण व्यवस्था हमें बलात स्वच्छक कर्म करने के लिए बाध्य करती है. हमें इस धरा पर जीवित रहते हुए उत्तम जीविकाएं चाहिए जिससे हम और हमारी संताने सुख उठा सकें. हमें मृत्यु के बाद स्वर्ग का लोभ मत दिखाओ. हम पुनर्जन्म नहीं जानते न ही हमें मोक्ष चाहिए.”
राम ने कहा, “शंबूक! हम सभी जानते हैं कि कोई भी व्यवस्था समाज के हर व्यक्ति की हर इच्छा को पूरा नहीं कर सकती. हर व्यवस्था में समाज के लोगों को कुछ न कुछ कष्ट अनुभव होगा ही. परंतु यह न भूलो कि वर्तमान व्यवस्था कोई ऐसी नहीं है जिसे तुम्हारे जैसे किसी एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने तपस्या द्वारा अर्जित ज्ञान बता कर लोगों को भाषण दे दिया हो और सरल हृदय लोगों ने उसको मान लिया हो. यह समाज का स्वभाविक वर्गीकरण है जिसे योग्य मनीषियों ने लंबे समय तक मनन करके दिशा प्रदान की है. तुम क्या समझते हो कि वे सब मूर्ख थे व तुम अकेले बुद्धिमान हो, या तुम यह समझते हो कि उन वन में रहने वाले निर्लिप्त तपस्वियों ने अपने किसी स्वार्थ के लिए इस व्यवस्था की कल्पना की थी. यह भी समझ लो कि कोई भी समाज अमर नहीं होता और न ही कोई व्यवस्था अमर हो सकती है. समय के साथ यह सब बदल जाएगा. जो राजा और मनीषी समाज के हित की चिंता करते हैं वे किसी भी व्यवस्था द्वारा अधिकतर प्रजा जनों को सुखी कर सकते हैं, पर जो असंतोषी लोग हैं वे हर व्यवस्था में असंतुष्ट ही रहते हैं. वर्ण व्यवस्था में बहुत सी कमियां हैं पर आज के परिप्रेक्ष्य में देश, धर्म व वाणिज्य के विकास के लिए यह पिछली मुक्त व्यवस्थाओं की अपेक्षा अधिक उपयुक्त सिद्ध हुई है. भविष्य में जब समाज की आवश्यकताएं भिन्न होंगी तब हो सकता है कि यह व्यवस्था समाज के लिए उपयुक्त नहीं रहे. समाज की आवश्यकताएं भी धीमे धीमे बदलती हैं और उनको पूरा करने के लिए व्यवस्थाओं में परिवर्तन भी धीमे धीमे ही किए जा सकते हैं. यदि हिंसा को आधार बनाकर उसे तुरंत बदलने का प्रयास किया जाएगा तो समाज के अधिकांश लोगों को हानि पहुंचेगी. मेरा कर्तव्य यही है कि मैं कुछ स्वार्थी व असंतोषी लोगों को समाज के अधिसंख्य लोगों का सुख न छीनने दूं. जरा सोचो शंबूक! यदि समाज में अराजकता फैलेगी तो क्या शूद्रों को उससे हानि नहीं होगी. जब देश में वर्ग संघर्ष होता है तो उससे समाज के सभी वर्गों को हानि होती है. जो महामारी यहाँ फैल रही है वह व्यक्ति के प्राण लेने से पहले यह नहीं पूछेगी कि वह ब्राह्मण है या शूद्र. इन सब अकाल मृत्यु के तुम उत्तरदायी होगे और तुम्हें दंड न देने पर यह उत्तर दायित्व मेरे ऊपर आएगा.”
13. विद्रोह का भय
शंबूक ने तुरंत तेवर बदले, “राम! यदि तुम मेरा वध करके हम लोगों का दमन करने का प्रयास करोगे तो शूद्रों में विद्रोह हो जाएगा. जितना तुम अन्याय करोगे उतना ही हम अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करेंगे.” राम ने तुरंत दृढ़ता पूर्वक कहा, “तुम्हारा वध नहीं अपितु तुम्हें जीवित छोड़ना शूद्रों के साथ अन्याय करना होगा. अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए तुम उनका सुख छीनना चाहते हो. ध्यानपूर्वक सुनो शंबूक. किसी राज्य की प्रजा तब विद्रोह करती है जब कोई अत्याचारी राजा अपने स्वार्थ के लिए लोगों का दमन करता है. यदि राजा प्रजा के हित के लिए किसी स्वार्थी दिग्भ्रमित व्यक्ति को दंड दे तो प्रजा विद्रोह नहीं करती. मेरी प्रजा जानती है कि मुझे राज्य की लालसा नहीं है और न ही मैं शासक बन कर कोई सत्ता सुख भोग रहा हूं. व्यर्थ का भय दिखाकर मुझे धर्म के मार्ग से विचलित करने का प्रयास मत करो. प्रजा अब तक तुम्हारी वास्तविकता जान चुकी है.”
शंबूक ने क्षणभर के लिए उपस्थित जनसमूह का अवलोकन किया. उनमें से अधिकांश लोग राम की बातों से आश्वस्त होते लग रहे थे. तो क्या शंबूक की योजना असफल हो जाएगी? शंबूक ने मन ही मन सोचा. क्या शंबूक के अनुयाई संकट के समय उसका साथ छोड़ देंगे? नहीं, शंबूक यह कदापि नहीं होने देगा. शंबूक परास्त नहीं हो सकता शंबूक के पास बहुत से अकाट्य तर्क हैं. आज राम को असफल करने पर ही उसकी सारी योजनाएं टिकी हैं. उसने तुरंत विषय बदला.
14. अपरिपक्व चिंतन
शंबूक बोला, “राम! तुम्हारे राज्य में मेरे ये बंधु अत्यंत दुखमय जीवन बिता रहे हैं. तुम्हारे राजकीय नियम हमें सुख प्राप्त करने से वंचित क्यों करते हैं? क्या हमें सुख पाने का कोई अधिकार नहीं है?
राम ने प्रति प्रश्न किया, “शंबूक! तुम्हारे सुख की परिभाषा क्या है? तुम किस क्रिया में सुख अनुभव करते हो?”
शंबूक क्षण भर को ठिठका, फिर व्यंग्यात्मक स्वर में बोला, “मैं तुम्हारे और ब्राह्मणों द्वारा चलाए गए मूर्खतापूर्ण तत्वज्ञान को केवल छल प्रपंच मानता हूं. स्वर्ग के सुख, नर्क की अग्नि, आत्मा परमात्मा एवं पुनर्जन्म जैसी कपोल कल्पनाएं केवल वंचितों को ठगने व अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए ही रची गई हैं. सत्य यह है कि इस संसार में रहते हुए जो भी आनंद हमें प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होते हैं वे ही सुख हैं.”
राम ने कहा, “शंबूक! यदि व्यक्तिगत सुख प्राप्त करना ही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य है, तो इतने लोगों का भला करने के लिए तुम व्यर्थ ही पीड़ित हो रहे हो. तुम मेधावी हो, तुम्हें कहीं भी उत्तम जीविका मिल जाएगी. किसी अन्य राज्य में जाकर अपने लिए धन व ऐश्वर्य देने वाली उत्तम जीविका की खोज क्यों नहीं करते.”
शंबूक तत्काल कोई उत्तर नहीं दे सका. उसने देखा कि राम के एक-एक तर्क से वहां उपस्थित लोगों की मनस्थिति बदल रही थी. वह कोई तर्क प्रस्तुत कर पाता इससे पहले ही राम ने आगे कहा, “शंबूक, तुम प्रतिभाशाली हो. मैं तुम्हारी प्रतिभा का सम्मान करता हूं. मेरी प्रबल इच्छा है कि तुम्हारी प्रतिभा का किसी रचनात्मक कार्य में प्रयोग हो और मनुष्य मात्र को उससे लाभ मिले, परंतु गलत महत्वाकांक्षाओं ने तुम्हारी प्रतिभा को विध्वंसात्मक मोड़ दे दिया है. मेरा तुमसे विनम्र आग्रह है कि मेरे साथ चल कर किसी योग्य गुरु के सान्निध्य में कुछ दिन सनातन धर्म दर्शन का अध्ययन करो तो तुम्हारा मतिभ्रम दूर होगा. आर्य चिंतन तो सर्वे भवंतु सुखिना का उद्घोष करके इस धरती पर रहने वाले प्रत्येक प्राणी के सुख की कामना करता है. इस बात का तो प्रश्न ही नहीं उठता कि उसमें कुछ वर्णों के लिए सुख व कुछ के लिए दुख देने की कल्पना की गई हो. तुम समझते हो कि इच्छाओं की पूर्ति से मनुष्य सुखी हो सकता है, कदापि नहीं. इच्छाएं तो अनंत तृष्णा की भांति बढ़ती जाती हैं और सुख दूर भागता जाता है. आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म को तुम कपोल कल्पना मानते हो और ईश्वर की सत्ता को नकारते हो. यदि ईश्वरीय न्याय का भय नहीं होगा तो मनुष्य नैतिक नियमों का पालन क्यों करेगा. यदि समाज के सभी लोग केवल अपने सुख के पीछे भागेंगे और उन्हें ईश्वर का भय नहीं होगा तो समाज में घृणा, शोषण व हिंसा की वृद्धि होगी. कुछ लोग धनी व शक्तिशाली हो जाएंगे वह अधिकांश लोग निर्धन एवं असहाय हो जाएंगे. जो बालक धनी के घर में जन्म लेगा वह धनी व जो निर्धन के घर में जन्म लेगा वह जन्म से ही निर्धन होगा. क्या यह सामाजिक अन्याय नहीं होगा?”
शंबूक तुरंत बोल उठा, “मैं ऐसी समाज व्यवस्था बनाऊंगा जिसमें कोई धनी व कोई निर्धन नहीं होगा. राज्य का सारा धन राजकोष में जमा किया जाएगा व प्रत्येक मनुष्य को उसकी आवश्यकता के अनुसार धन आवंटित किया जाएगा.”
राम क्षण भर को हतप्रभ हो गए. शंबूक बौद्धिक रूप से इतना अपरिपक्व व मूर्ख होगा ऐसी आशा उन्हें नहीं थी. उन्होंने कहा, “इस प्रकार की व्यवस्था से न तो कोई व्यक्ति सुखी हो सकता है और न ही कोई राष्ट्र उन्नति कर सकता है. यदि सभी को आवश्यकतानुसार धन आवंटित किया जाएगा तो कोई कठोर श्रम क्यों करेगा? सभी लोग श्रम करने से बचेंगे व अधिक से अधिक सुविधाएं पाना चाहेंगे. इसके अतिरिक्त यदि कोई भी व्यक्ति सैनिक, कृषक व शिक्षक बनना नहीं चाहेगा तो समाज के लिए महत्वपूर्ण ये कार्य कैसे होंगे. यदि तुम यह मानते हो कि किसी से स्वच्छक कर्म करवाना उसका शोषण करना है तो तुम किस से यह कार्य कराना चाहोगे?”
शंबूक ने तुरंत घृणा मिश्रित स्वर में कहा, “यह कार्य में इन नीच ब्राह्मणों एवं उनकी संतानों से कराऊंगा.”
राम ने कहा, “इन ब्राह्मणों से तो तुम्हारी शत्रुता समझ में आती है, पर यदि तुम स्वच्छक कर्म को दंड मानते हो तो जिन ब्राह्मण संतानों ने अभी जन्म नहीं लिया है उनके किस अपराध के लिए तुम उन्हें यह दंड दोगे? उन ब्राह्मणों के वंशजों के बीच भी फिर कोई शंबूक जन्म लेगा जो हिंसा द्वारा उन्हें शूद्रों से प्रतिशोध लेने के लिए उकसाएगा. क्या इस प्रकार हिंसा एवं प्रतिहिंसा द्वारा इस समस्या का समाधान हो सकेगा? ब्राह्मण शूद्र के प्रति तिरस्कार का भाव रखे या शूद्र ब्राह्मण के प्रति घृणा का, ये दोनों ही बातें समान रूप से निंदनीय हैं. प्रेम और बंधुत्व का वातावरण बनने से समाज की उन्नति होती है और राष्ट्र समृद्ध होता है. आर्थिक समृद्धि आने से सभी का जीवन स्तर ऊपर उठता है व समाज में शिक्षा, चिकित्सा सुविधाएं, मनोरंजन, सुरक्षा एवं अन्य सुविधाएं सभी लोगों को उपलब्ध होती हैं. इसके विपरीत यदि वर्ग संघर्ष होता है तो सभी वर्गों को, समाज को और राष्ट्र को अत्यधिक हानि होती है. इस समय आवश्यकता इस बात की है कि समाज के लोग जागृत होकर एक दूसरे का सम्मान करना सीखें व यह समझें कि ईश्वर का बनाया गया प्रत्येक मनुष्य बराबर है. किसी को छोटा या बड़ा समझना ईश्वर का अपमान करना है.”
इससे पूर्व कि शम्बूक कोई नया कुतर्क प्रस्तुत कर पाता राम ने वहाँ उपस्थित जन समुदाय की ओर देखकर दृढ़ता पूर्वक कहा, “समाज को दिग्भ्रमित करके अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाले लोग हर युग में होते रहे हैं व होते रहेंगे. लूट बलात्कार और धर्म परिवर्तन में विश्वास रखने वाली राक्षसी संस्कृतियों मानवता को अनेक बार आतंकित करेंगी. शंबूक जैसे घृणा व रक्तपात को आधार बनाकर सामाजिक न्याय ढूंढने वाले विचारक भी हर युग में जन्म लेंगे, पर संभवत: आने वाले भौतिकता वादी युगों में आर्य मनीषियों जैसे निस्वार्थ तपस्वी नहीं होंगे जो उन से मानवता की रक्षा कर सकें. उस समय इस प्रकार के कुछ लोग वर्ग संघर्ष भड़का कर सत्ता पर अधिकार कर लेंगे. पर स्मरण रखिए कि इस प्रकार सत्ता हथियाने वाले लोग अत्यंत निकृष्ट, रक्त पिपासु, व्यभिचारी एवं अत्याचारी शासक सिद्ध होते हैं.”
राम ने पुनः शंबूक की ओर मुड़ कर कहा, “मेरा कहा मानो शंबूक! अपनी विचारधारा को रचनात्मक दिशा प्रदान करो. हम लोगों के लाख प्रयास करने के उपरांत भी हमारे समाज में अभी उस स्तर की समरसता नहीं आ सकी है जैसी हम चाहते हैं. अभी हमारा समाज अस्पृश्यता की मानसिकता से पूर्णतया मुक्त नहीं हो सका है. इसके लिए कठोर दंड विधान बने इससे भी अधिक आवश्यक यह है कि जो वर्ग अपने को दलित समझते हैं उनके भीतर आत्म गौरव की भावना जगाई जाए. उन्हें यह अनुभव कराया जाए कि वे समाज के महत्वपूर्ण व आवश्यक अंग हैं. उनमें यह भाव जगाने की आवश्यकता है कि शताब्दियों पूर्व जो भूलें हमारे समाज ने की उन को आधार बनाकर घृणा उपजाने से नहीं अपितु उनको क्षमा करने से यह घाव भरेगा.”
राम कुछ क्षण के लिए रुके. फिर उन्हों ने आदेशात्मक स्वर में आगे कहा, “मैं तुम्हें अंतिम अवसर दे रहा हूं शंबूक! तुम अपना अपराध स्वीकार करके अपनी विध्वंसकारी गतिविधियों को बंद करने का वचन दो अन्यथा राज्य के संविधान में इतने भीषण अपराधों के लिए प्राण दंड देने का प्रावधान है. तुम प्रतिभाशाली हो, पर सत्ता प्राप्त करना ही प्रतिभा का एकमात्र उद्देश्य नहीं होना चाहिए. घृणा एवं हिंसा द्वारा सत्ता प्राप्त करने की अपेक्षा अन्य बहुत से मार्गों से भी समाज की सेवा की जा सकती है व धन एवं यश अर्जित किए जा सकते हैं. इसके लिए तुम्हें कुछ दिन दर्शनशास्त्र व अर्थशास्त्र का अध्ययन करना होगा. तुम ब्राह्मणों को अपना शत्रु मानते हो इसलिए मैं किसी ब्राह्मण ऋषि को गुरु बनाने के लिए तुम से आग्रह नहीं करूंगा. तुम पूज्य महर्षि वाल्मीकि जी के पास जाकर उनसे शिक्षा लो तो तुम भी उन्हीं के समान जन-जन के पूज्य बन सकते हो.”
उपस्थित जनसमूह पूर्ण रूप से राम से सहमत हो चुका था. राम के विचार कितने दिव्य हैं और कितने व्यवहारिक हैं. सत्य ही वे लोक कल्याणकारी हैं. अधिकांश लोगों को इस बात पर लज्जा अनुभव होने लगी कि कैसे वे शंबूक के कपट जाल में फस गए थे.
शंबूक ने अपने आप को परास्त अनुभव किया. उसका मुख उत्तेजना के कारण विकृत हो उठा. कर्कश स्वर में वह बोला, “राम! तुम अपने गुरुओं द्वारा सिखाए वंचना के मार्ग पर चल रहे हो. इसी प्रकार की भ्रामक बातें करके तुम लोग हमें हमारे अधिकारों से वंचित करते रहे हो. परंतु मैं एक महान क्रान्ति का बीज हो चुका हूं और अब इस मार्ग से पीछे हटने वाला नहीं हूं. तुम मेरा वध करने का साहस नहीं कर सकते. मेरा वध करके तुम यहां से जीवित वापस नहीं जाओगे. इसी क्षण यहां सशस्त्र क्रान्ति का आरंभ होगा और तुम्हारी सत्ता भूमिसात हो जाएगी.”
15. उद्धार
राम के लिए अब कोई द्विविधा नहीं थी. शंबूक ने सन्मार्ग पर आने से स्पष्ट इनकार कर दिया था. राम ने जन समुदाय की ओर मुड़ कर धीर गंभीर स्वर में कहा, “उपस्थित महानुभावों! शंबूक जैसे राज विद्रोहियों और मानवता के अपराधियों के लिए हमारे संविधान में प्राण दंड की व्यवस्था है परंतु हमारा संविधान यह भी कहता है कि अपराध कितना भी गंभीर क्यों न हो, प्राण दंड का निर्णय केवल एक व्यक्ति को नहीं लेना चाहिए, राजा को भी नहीं. क्योंकि इससे कभी-कभी किसी निर्दोष के साथ अन्याय होने की आशंका रहती है. हमारे संविधान के अनुसार न्यायाधीशों की पीठ ही किसी को प्राण दंड देने का निर्णय ले सकती है. मेरा जनता जनार्दन से अनुरोध है कि आप इस विषय में अपना मत प्रकट करें.” राम की वाणी में दृढ़ता थी और मुख पर अलौकिक न्याय कर्ता का भाव भासित हो रहा था.
अब शंबूक के मन में भय हो आया. वह अब तक यह निश्चित मान रहा था कि उसका वध करने का साहस कोई नहीं करेगा. उसने चारों ओर खड़े लोगों के हाव भावों का अवलोकन किया. उसे किसी के भी मुख पर उत्तेजना नहीं दिखाई दी. राम के विरुद्ध कोई भी असंतोष उसे दिखाई नहीं दिया. उसकी स्थिति किंकर्तव्यविमूढ़ की सी हो गई. तो क्या वह राम से क्षमा मांग ले. नहीं! अब वह पीछे नहीं हट सकता. यदि वह राम से क्षमा मांगता है तो उस का राजनैतिक जीवन समाप्त हो जाएगा. उसने चीत्कार जैसे स्वर में कहा, “मित्रों आज तुम्हारे साहस और शंबूक के प्रति प्रेम की परीक्षा है. उठाओ अपने अस्त्र और टूट पड़ो अत्याचारियों के प्रतिनिधि इस राम पर. अब समय आ गया है, समाप्त कर दो इस वर्ण वादी सत्ता को और उन्मुक्त जीवन के अधिकारी बनो. वध कर दो इस ढोंगी शासक का जिसको उन धूर्त ब्राह्मणों ने मेरा वध करने के लिए भेजा है और जो तुम लोगों को मेरे विरुद्ध भड़काने का प्रयास कर रहा है.” शंबूक की आशा के विपरीत जन समूह में कोई हलचल नहीं हुई. यह राम का प्रभाव था.
जनसमूह में से ध्वनियाँ उठने लगीं, यह अपराधी है, इसे दंड मिलना ही चाहिए. राम के आने से पूर्व जनसमूह की जो मानसिकता राज्य के प्रति विद्रोह की बन गई थी वही अब उनके आने के पश्चात शम्बूक के प्रति क्रोध और घृणा में परिवर्तित हो गई थी. लोग कोलाहल करने लगे, प्राणदंड, प्राणदंड, प्राणदंड.
राम ने झुक कर जनता का अभिवादन किया और शम्बूक की ओर मुड़ कर धीमे किंतु स्पष्ट स्वरों में कहा, “मुझे क्षमा करना आर्य शंबूक! मेरे असंख्य गिरिवासी, वनवासी व श्रमजीवी बंधुओं की सौगंध कि मैं सदैव उनके उद्धार के लिए प्रयासरत रहूंगा, परंतु तुम्हारा उद्देश्य दलितों के उद्धार का नहीं अपितु हिंसा द्वारा समाज को छिन्न-भिन्न करके सत्ता प्राप्त करने का है. तुम्हारा वध करने में यदि मुझे पाप भी लगता हो तो मैं समाज के हित के लिए इस पाप का बोझ उठाने को तैयार हूं.”
राम ने नेत्र बंद करके ओम रामेश्वराय नमः का उच्चार किया. तत्पश्चात नेत्र खोलकर नितांत निर्विकार भाव से शंबूक की ओर दृष्टिपात किया. इस दृष्टि में क्रोध व घृणा नहीं अपितु अथाह करुणा थी, दिग्भ्रमित आत्माओं का उद्धार करने की पवित्र भावना. फिर निमिष मात्र में ही उन्होंने अपनी तलवार से शंबूक का शिरच्छेद कर दिया. वहां उपस्थित लोगों के हृदय क्षण भर के लिए कम्पित हुए परंतु राम के मुख पर छाए दिव्य तेज को देखकर वे भक्ति भाव से भर उठे व राम की जय जय कार करने लगे.
उपसंहार. शंबूक के उद्धार के पश्चात राम ने अयोध्या के लिए प्रस्थान करने से पूर्व दंडकारण्य के निवासियों की एक सभा बुलाई. उसमें उन्होंने उन लोगों की भ्रांतियां दूर कीं, उनकी समस्याएं सुनीं व उनका निराकरण किया. राम के आह्वान पर वहां के लोगों ने युद्ध स्तर पर कार्य कर के स्वच्छता व्यवस्था को ठीक किया एवं महामारी पर नियंत्रण के लिए परिश्रम किया. शीघ्र ही वहां से अराजकता का नाश होकर सुख एवं शांतिपूर्ण वातावरण का निर्माण हो गया.
राम के जाने के पश्चात दंडकारण्य की वीथियों में कोई दो प्रबुद्ध नागरिक इस प्रकार वार्ता करते सुने गए-
प्रथम- हम लोग श्रीराम की प्रजा हैं यह कितने सौभाग्य की बात है. इतिहास के आरंभ से आज तक इतना महान कोई राजा इस धरती पर नहीं हुआ और संभवत आगे भी नहीं हो पाएगा. वे आदर्श और महानता की पराकाष्ठा हैं. दलितों के उद्धार के लिए जो प्रयास उन्होंने किए हैं वे अभूतपूर्व हैं.
द्वितीय- ठीक कहते हो तुम. शंबूक का वध करके उन्होंने सही अर्थों में दलितों पर बड़ा उपकार किया है.
प्रथम- पर एक आशंका मुझे सताती है कि कुछ दुष्ट छिछोरे लोग इस घटना को शूद्रों पर अत्याचार कहकर प्रचारित करने का प्रयास कर सकते हैं.
द्वितीय- शूकर की दृष्टि सदैव विष्टा पर ही ठहरती है. मेरे विचार में ऐसे निकृष्ट लोगों को महत्व देने की कोई आवश्यकता नहीं है. जनसाधारण के मन में राम सदैव रहेंगे और युगों तक मानवता राममय रहेगी.
गोकुल में स्पष्ट परिवर्तन आया था। कुछ काल पहले तक उदास दिखने वाले मुखों पर अब उमंग और उत्साह दिखाई देते थे। बालक अब सर्वत्र किलकारियाँ करते, आनंद पूर्वक मायें चराते और भांति भांति की क्रीड़ाएं करते थे। वृक्ष हरे-भरे हो गए थे और पशु भी प्रसन्न हो कर अठखेलियाँ करते प्रतीत होते थे। इस परिवर्तन को लाने वाला और कोई नहीं एक छोटा सा बालक था, नन्द का पुत्र कृष्ण। नटखट, सुन्दर, सांवला, सलोना सब का प्यारा कृष्ण। उस के मुख पर एक अलौकिक मुस्कान थी जो निराशा को घो डालती थी। उस का हर कार्य आशा और आनन्द को जन्म देने वाला होता था। जिधर यह चलता था सभी उस ओर सम्मोहित से हो कर चल पड़ते थे और जैसा वह कहता था, बिना भला बुरा विचारे वैसा ही करने को तत्पर हो जाते थे।
यह समय बहुत ही बुरा था। दुष्ट कंस के राज्य में न्याय, सत्य और धर्म के लिए कोई स्थान न था। यथा राजा तथा प्रजा की कहावत को चरितार्थ करते हुए कंस के चाटुकार सेवक भी असहाय जनता पर मनमाने अत्याचार करते थे। अवैध व्यापारी एवं दस्यु प्रवृत्ति के लोग राजनैतिक संरक्षण में खूब फल फूल रहे थे। इन्हीं में से एक था कालिया। वह कुछ वनस्पतियों व रसायनों के संयोग से विशेष प्रकार के मादक द्रव्य बनाया करता था जिनके सेवन से मनुष्य को उन्माद हो जाता था। यह उन्माद सुरापान से भिन्न होता था।
प्रारंभ में कुछ मनचले युवक केवल जिज्ञासा वश ऐसे पदार्थों का सेवन कर लिया करते थे। शीघ्र ही उन्हें इन मादक पदार्थों की लत हो जाती थी और इन के न मिलने पर शरीर में भयंकर छटपटाहट होती थी। ऐसी स्थिति में वे अधिक से अधिक मूल्य दे कर भी उन मादक पदार्थों को खरीदने पर विवश हो जाते थे। धन का अभाव होने पर वे इन मादक पदार्थों की प्राप्ति के लिए घोर असामाजिक कार्य और अपराध तक करने को तत्पर हो जाते थे। एक बार मादक द्रव्यों के जाल में फँस जाने वाले का सर्वनाश निश्चित होता था। इस अनैतिक व्यापार से होने वाली आय का एक बड़ा भाग सत्ता के शीर्ष लोगों तक पहुँचता था। इसके अतिरिक्त कालिया की इन मादक बूटियों की मदद से कंस ने बहुत से शक्तिशाली राक्षसों को वश में कर रखा था। इस कारण से भी कालिया कंस का विशेष कृपा पात्र था।
गोकुल के समीप यमुना का पाट बहुत विस्तृत था। नदी के पार के भूभाग पर कालिया ने अपना महल और रसायन शाला बनाए थे। उन से निकलने वाले विषैले रसायनों के कारण यहाँ का जल बहुत विषैला हो गया था। उस प्रदूषित जल को पी कर बहुत से मनुष्य और पशु काल का ग्रास बन चुके थे। गोकुल वासी घृणा वश कालिया को कालिया नाग और यमुना के उस भाग को काली दह कहते थे।
अपराधियों, असामाजिक तत्वों, भ्रष्ट प्रशासनिक अधिकारियों व न्यायपालिका का यह अपवित्र गठबंधन मथुरा के ग्रामीण अंचलों में रहने वाले सरल हृदय और भीरु प्रकृति के लोगों को विभिन्न प्रकार से उत्पीड़ित करता था। लेकिन उन ग्वाल बालों में किसी भी प्रकार का प्रतिकार करने का साहस नहीं था।
कृष्ण अल्पायु से ही यह सब देख रहे थे। उन्होंने व्यथित और निराश होना नहीं सीखा था। वह समझते थे कि संगठित हुए बिना वह संघर्ष नहीं कर सकते। लेकिन इन भीरु प्रकृति के लोगों को संगठन के लिये प्रेरित करना कोई आसान कार्य न था। किसी भी समाज में अधिकाँश लोग सामाजिक सरोकारों के प्रति उदासीन होते हैं। सभी यह चाहते है कि अत्याचार का विरोध तो हो लेकिन उसके लिए अन्य लोग आगे बढ़ कर संघर्ष करें, न तो उनके स्वयं के ऊपर कोई संकट आए और न ही उनको मिलने वाली सुविधाओं में कोई कमी आए।
बहुत विचार कर के कृष्ण ने खेल खेल में उन्हें संगठित करने की विधि निकाली। उन्होनें दैनिक खेल कूद का आयोजन करना आरम्भ किया। विशेष कर कृष्ण का ध्यान उन खेलों पर था जिन से व्यक्ति जुझारू बन सके, जैसे रस्साकसी, कबड्डी, मल्लयुद्ध दंड युद्ध, कशा (चाबुक) युद्ध इत्यादि। खेल के पश्चात सब ग्वाल बाल घेरा बना कर बैठते और तब कृष्ण का बातों का पिटारा खुलता। राम व लक्ष्मण द्वारा बाल्यकाल में ही ताड़का एवं सुबाहु जैसे दुर्दांत आतंकी राक्षसों का वध और फिर वनवासी जनजातियों का संगठन कर के रावण का संहार, परशुराम द्वारा सहस्त्र बाहु का वध, देवताओं द्वारा दानवों से सतत संघर्ष एवं बार बार हार का मुँह देखने के बाद अंत में विजय प्राप्त करना जैसी कथाएँ सुनाने के बाद कृष्ण उन्हें वर्तमान में ले आते। वे उन्हें उस समय व्याप्त समस्याओं से अवगत कराते और निराशा को त्याग कर संघर्ष करने की प्रेरणा देते।
कृष्ण की चपलता और शारीरिक क्षमता अद्भुत थीं। उन्होंने मल्लयुद्ध के नए-नए दाँव विकसित किए थे। ग्रामीणों के लिए सहज व सुलभ दंड (लाठी), कशा (चाबुक) और गुलेल जैसे छोटे छोटे अस्त्रों के प्रयोग में उन्होंने अत्यधिक सिद्धहस्तता प्राप्त की थी। बलराम जी कृषि में काम आने वाले हल को मारक शस्त्र के रूप में प्रयोग करते थे। इन अस्त्रों के प्रयोग में उन्होंने शनैः शनैः अन्य बालकों को भी पारंगत बनाया। कंदुक (गेंद) का खेल भी बालकों को अत्यधिक प्रिय था। वे एक दूसरे के शरीर को लक्ष्य बना कर वेग से कंदुक फेंकते थे और वार को बचाते थे। कहने को ये सभी खेल बड़े सरल और सरस थे पर इस खेल खेल में ही बालकों की शारीरिक दृढ़ता और प्रहार क्षमता बढ़ने लगी।
कुछ माह में ही कृष्ण के प्रयास रंग लाने लगे। संगठित होते बालकों में अब उत्साह जागृत होने लगा। पहले जो बालक कहीं भी तनिक झगड़ा होते देख कर घरों में जा छिपते थे, वही बालक अब शौर्य पूर्वक अन्याय का प्रतिकार करने लगे। एक ही आवाज पर सैकड़ों बालक दंड (लाठी) एवं कशा (चाबुक) इत्यादि ले कर एकत्र हो जाते थे। शोषण करने वाले अधिकारी एवं दस्यु प्रवृत्ति के लोग अब इस संगठित जनशक्ति से भय खाने लगे थे।
गोकुल से गोप बालाएँ दधि माखन इत्यादि को बेचने के लिए मथुरा ले जाती थीं। मथुरा के व्यापारी बहुत कम मूल्य दे कर इस सब को हथिया लेते थे और स्वयं बहुत अधिक मूल्य में विक्रय कर के अनुचित लाभ कमाते थे। कंस के सैनिक और प्रशासनिक अधिकारी भी सुविधा शुल्क के नाम पर इस में से बड़ा भाग हड़प लेते थे। कृष्ण ने सब को समझाया कि इस दधि माखन को खा कर कंस के अत्याचारी सैनिक और बलिष्ठ हो जाएँगे। इस की आवश्यकता तो यहाँ के ग्वाल बालों को है। कृष्ण के नेतृत्व में ग्वाल बालों की टोली घरों से दधि माखन चुरा कर खाने लगी। इन टोलियों ने गोकुल से बाहर जाने वाली युवतियों को रोकना आरम्भ किया। कुछ की मटकियाँ तोड़ी गई। अंततः गोकुल से दधि माखन बाहर जाना बंद हो गया। नियमित रूप से गोरस मिलने से कुपोषण से ग्रस्त बालक धीमे धीमे बलिष्ठ होते दिखाई देने लगे।
कालिया तो कंस का विशेष कृपापात्र था ही, उस काल में कंस के पाले हुए अन्य बहुत से राक्षस भी राज्य में कहीं भी मनमाना भ्रमण करते थे एवं जहाँ चाहते थे वहाँ रुक कर लोगों को पीड़ित करते थे। असहाय लोग उनकी सब कुत्सित इच्छाओं को पूरा करते थे। ग्वाल बालों का साहस धीरे धीरे इतना बढ़ गया कि वे कृष्ण और बलराम के नेतृत्व में उन राक्षसों पर भी आक्रमण करने लगे। राक्षसों के लिए यह सब अप्रत्याशित एवं अकल्पनीय था। वे इतने स्थूलकाय एवं विलासी हो चुके थे कि युद्ध करना भूल चुके थे। उन में से कुछ तो मारे गए एवं कुछ जान बचा कर कंस के पास पहुँचे। कंस ने अपने सत्ता मद में उन राक्षसों की चेतावनियों पर कोई ध्यान न दिया, अपितु बालकों से पिट कर आने पर उन्हें ही उलाहना दिया।
गोकुल के जो युवक युवतियाँ कालिया के विषैले जाल में फँस गए थे उन्हें कृष्ण एवं गोकुल वासियों ने कुछ स्नेह व कुछ कठोरता द्वारा अपने वश में किया। योग्य वैद्यों के मार्गदर्शन में उन में से अधिकांश युवक मादक द्रव्यों की लत से बाहर निकलने में सफल हो गए। इस प्रकार के युवकों ने फिर अन्य ग्वाल बालों के साथ मिल कर कालिया के दूतों को पकड़वाने का उत्तरदायित्व लिया। जो दो तीन दुष्ट दूत इन लोगों की पकड़ में आ गए उन पर मल्ल युद्ध के दाँव-पेचों का इतना अभ्यास किया गया कि उन का कचूमर निकल गया। अन्य दूत भय के कारण यह क्षेत्र छोड़ कर भाग गए।
इन सब प्रयासों से मादक द्रव्यों की समस्या पर काफी नियन्त्रण हो गया, परन्तु इस समस्या की जड़ तो स्वयं कालिया ही था। कृष्ण जानते थे केवल सतही उपचार करने से कोई समस्या समाप्त नहीं होती। उसकी जड़ को नष्ट करना आवश्यक है। जड़ को वहीं छोड़ देने पर समस्या निश्चित रूप से पुनः सर उठाएगी। कालिया को वहाँ से हटाया जाना बहुत आवश्यक था। पर यह कैसे सम्भव हो?
काली दह के किनारे कदंब का एक घना वृक्ष था। उस पर चढ़ कर कालिया के महल का दृश्य स्पष्ट दिखाई देता था। कृष्ण बहुधा वहाँ बैठ कर कालिया की गतिविधियों का निरीक्षण किया करते थे। कुछ दिनों में कृष्ण ने निश्चित रूप से जान लिया कि अपराहन में कालिया के सभी दूत बाहर चले जाते थे। कालिया स्वयं भारी डील- डील का स्वामी था व स्वभाव से विलासी एवं आलसी था। अब कृष्ण उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
एक दिन कृष्ण अपराहन में दैनिक क्रीड़ा के पहले कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ कर यमुना के उस पार कालिया के महल का निरीक्षण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि कालिया अपने महल से बाहर निकला एवं लड़खड़ाता हुआ आ कर रेत पर लेट गया। उसकी चाल बता रही थी कि उसने किसी मादक पदार्थ का अत्यधिक सेवन कर रखा था। कृष्ण को यह अवसर उपयुक्त लगा। ग्वाल बालों के देखते देखते कृष्ण कालीदह में कूद गए। सभी ग्वाल बाल उनकी इस गतिविधि से हतप्रभ रह गए। कुछ मारे भय के वहीं खड़े रोने चिल्लाने लगे। कुछ भाग कर गोकुल पहुँचे। वहाँ जिसने भी सुना कि कृष्ण काली दह में कूद गए हैं, वही रोता पीटता भागा चला आया। माता यशोदा पछाड़ खा कर मूर्छित हो गईं। बहुत से ग्वाल बाल लाठियाँ पटक पटक कर जल में कूदने का हठ करने लगे। वयस्क लोगों ने बड़ी कठिनाई से उन्हें रोका। उधर कृष्ण पानी के भीतर तैर कर उस तट तक जा पहुँचे थे। उनका प्रिय कशा (चाबुक) उनकी कमर से लिपटा हुआ था।
कालिया उस समय जल के किनारे मखमल की शैया पर लेटा धूप सेंक रहा था। कृष्ण सीधे उसके सम्मुख जा कर खड़े हो गए और अधिकार पूर्वक उससे कहा, ‘उठो कालिया। मैं नंद का पुत्र कृष्ण तुम्हारे लिए क्षेत्र प्रमुख का आदेश ले कर आया हूँ। तुम्हारे लिए आज्ञा है कि तुम अपना विषैला व्यापार बंद कर के अन्यत्र चले जाओ। यदि तुम शान्ति पूर्वक यहाँ से चले जाओगे तो तुम्हें और तुम्हारे परिवार को कोई हानि नहीं पहुँचाएगा।”
कालिया ने कृष्ण का नाम अपने दूतों से सुन रखा था। इधर के क्षेत्र में इस बालक के कारण उस का व्यापार नहीं चल पा रहा था ऐसा उसे ज्ञात हुआ था। कृष्ण को इस प्रकार सामने खड़ा देख कर और उन के चुनौती भरे वचन सुन कर वह बिल्कुल आग बबूला हो गया। वह त्वरित गति से उठा और लगभग फुफकारते हुए कृष्ण पर झपटा।
कृष्ण सावधान थे। झपटते हुए वृषभों (साँड़ों) को वंचका देना व उन पर कशा प्रहार करना उन का प्रिय खेल था। उन्होंने उसी प्रकार एक ओर हट कर कालिया को उस के वेग में आगे निकल जाने दिया और उस की पीठ पर कशा से भरपूर प्रहार किया। कालिया फूत्कार कर पलटा और पुनः कृष्ण पर झपटा। कृष्ण ने उसी प्रकार वार बचाया और फिर भीषण प्रहार किया। कालिया औंधे मुँह रेत में गिरा और असह्य वेदना से छटपटाया। वह समझ गया कि सामने खड़ा बालक कोई साधारण बालक नहीं है। उसकी चपलता और प्रहार शक्ति असाधारण है।
कालिया शीघ्रता से सतर्क हो कर उठने लगा। लेकिन कृष्ण अवसर चूकने वाले नहीं थे। वह उठ पाता इस से पहले ही कृष्ण ने उसके ऊपर अपने कशा के भयंकर प्रहार करने आरंभ कर दिये। कालिया वार बचाने का प्रयास कर रहा था और कृष्ण को पकड़ना चाह रहा था। पर कृष्ण की क्षिप्रता अद्भुत थी। उनका कोई भी वार खाली नहीं जा रहा था।
कृष्ण के प्रत्येक प्रहार में इतनी शक्ति थी कि कालिया के शरीर में स्थान स्थान पर रक्त छलक आया था। क्रोध और पीड़ा के कारण उस के मुख से भयानक फूत्कार की ध्वनियाँ निकल रही थीं और फेन गिरने लगा था। वह किसी प्रकार उठ कर कुछ दूर भागा। महल की ओर जाने वाले मार्ग को कृष्ण रोक कर खड़े थे। इस बीच कालिया की पत्नियाँ भी महल के द्वार पर आ गई थीं और इस विचित्र अकल्पनीय दृश्य को आँखें फाड़ फाड़ कर देख रही थीं।
कालिया का मस्तिष्क कार्य नहीं कर रहा था। जीवन में पहली बार इस प्रकार के संकट से उस का सामना हुआ था। कृष्ण को कशा ले कर अपनी ओर बढ़ता देख कर उसे कुछ न सूझा। हड़बड़ाहट में उसने जल में छलाँग लगा दी। संभवतः यह उस के जीवन की सब से बड़ी भूल थी।
कृष्ण स्वयं अत्यधिक कुशल तैराक थे। कालिया के जल में कूदते ही उन्होंने कशा को एक ओर फेंका और बिना एक पल का भी विलंब किए जल में कूद पड़े। कालिया जल की सतह पर आकर श्वास ले पाता इससे पहले ही कृष्ण जल के भीतर उस के ऊपर पहुँच गए और उस के मस्तक पर अपने पैरों से शक्तिशाली प्रहार करने आरंभ कर दिए। कालिया भली भाँति तैरना जानता था पर उस का शरीर भारी था और कृष्ण उसे सन्तुलन बनाने का अवसर ही नहीं दे रहे थे। कालिया बीच बीच में किसी प्रकार जल की सतह पर आ कर श्वास लेता और कृष्ण पर वार करने का प्रयास करता।
कालिया ने अनेक बार प्रयास किया कि किसी प्रकार एक बार कृष्ण को पकड़ ले और अपनी भुजाओं में पीस कर मार डाले पर कृष्ण उसकी पकड़ में ही नहीं आए। इस भयानक उथल पुथल के कारण काली दह का रसायन युक्त जल फेनिल हो रहा था और किनारे खड़े गोकुल वासी कुछ न दिखाई देने के कारण बहुत व्याकुल हो रहे थे। शीघ्र ही कालिया बहुत थक गया। उस को जल के भीतर अपना संतुलन बनाए रखने में बहुत कठिनाई हो रही थी। कृष्ण ने अब उचित अवसर जान कर पानी में डुबा कर उसके प्राण लेने का निश्चय किया। उन्होंने अपने वक्ष में भरपूर श्वास भरा और जल में डुबकी लगा कर कालिया के नीचे पहुँच गए। कालिया के पैरों को पकड़ कर उन्होंने उसे भी जल के भीतर खींच लिया। अब तक कालिया का श्वास बुरी तरह उखड़ चुका था जबकि कृष्ण को श्वास रोकने का बहुत अच्छा अभ्यास था।
जल के भीतर कालिया श्वास लेने के लिए छटपटाने लगा और अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा कर बाहर आने का प्रयास करने लगा। जब यह मरणासन्न हो गया तो कृष्ण उसे खींच कर जल के ऊपर ले आए। अब उसमें इतनी शक्ति नहीं रह गई थी कि वह अपने भारी शरीर का जल में संतुलन बना सके। वह समझ गया कि जल में कूद कर उसने भारी भूल कर दी है। इधर जल की उथल पुथल शान्त होने के बाद गोकुल वासियों को भी अब सारा दृश्य स्पष्ट दिखाई देने लगा था। उत्साही युवक लाठियाँ पीट पीट कर और चिल्ला कर कृष्ण को कालिया का वध करने के लिए उत्साहित करने लगे। कालिया को अपना अंत अब निकट दिखाई देने लगा। उसने हाथ जोड़ कर कृष्ण से विनती की, ‘हे कृष्ण! दया करो, मेरे प्राण मत लो। तुम जो कहोगे वही मैं करूँगा। इसी बीच कालिया की कुछ पत्नियाँ भी तैर कर वहाँ पहुँच गई और कृष्ण से प्रार्थना करने लगीं कि वे उनके पति को जीवित छोड़ दें।
कृष्ण ने कुछ क्षणों तक उस परिस्थिति पर विचार किया। कालिया की पत्नियों पर उन्हें दया आयी। कालिया कितना भी दुष्ट क्यों न हो, इस समय वह और उसकी पत्नियाँ कृष्ण की शरणागत थीं। शरणागत का वध करना आर्य संस्कृति के विरुद्ध था। पर उसको एवं उसकी विष उगलने वाली रसायन शालाओं को ऐसे ही छोड़ देना भी ठीक न था। विषम परिस्थितियों में तुरन्त सटीक निर्णय लेना कृष्ण की विशेषता थी। उन्होंने कालिया की ग्रीवा को अपनी एक भुजा से इस प्रकार जकड़ लिया कि वह कोई धूर्तता न कर सके और उसकी पत्नियों को आज्ञा दी कि वे तुरंत जा कर अपने महल को आग लगा दें। कालिया की स्त्रियों के पास कृष्ण की आज्ञा मानने के अतिरिक्त कोई चारा न था। कालिया के प्राण बचाने के लिए उन्होंने महल में जा कर आग लगानी आरंभ कर दी। महल के भीतर एकत्र ईंधन और रसायनों के कारण शीघ्र ही महल से गगनचुम्बी लपटें उठने लगीं।
कृष्ण इस बीच कालिया की ग्रीवा को उसी प्रकार जकड़े रहे। उनकी सहायता के लिए तब तक बहुत से ग्वाल बाल तैर कर यहाँ आ गए थे और कालिया को चारों ओर से घेर लिया था। जब कालिया का महल पूर्ण रूप से अग्नि की लपटों से घिर गया तो कृष्ण ने कालिया को छोड़ दिया और उससे कहा, जाओ कालिया, अब तुम मथुरा की सीमा के भीतर कभी न आना। अपने शेष जीवन को किसी सेवा कार्य में लगाना तभी तुम्हारा उद्धार होगा। कालिया अपनी पत्नियों के साथ नतमस्तक हो कर वहाँ से चला गया।
उस रात्रि कालिन्दी के तट पर विजयोत्सव मनाया गया। कालिया जैसे दुर्दांत दस्यु के साथ मरणान्तक द्वन्द्व करने वाले कृष्ण इस समय आनंद मग्न हो मुरली बजा रहे थे और मुख पर एक भुवन मोहिनी मुस्कान ले कर ग्वाल बालों व गोप कन्याओं के साथ नृत्य कर रहे थे। अधर्म एवं अन्याय से संघर्ष के साथ साथ यदि जीवन में रस एवं आनंद भी हो तभी जीवन की पूर्णता है, ऐसा उनका विश्वास था।